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________________ XVI सिद्धसेन दिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व आती, क्योंकि समन्तभद्र की आप्तमीमांसा आदि कृतियों में सिद्धसेन के सन्मतितर्क का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है। इनमें न केवल भावगत समानता है, अपितु प्राकृत और संस्कृत के शब्द रूपों को छोड़कर भाषागत भी समानता है और यह निश्चित है कि सिद्धसेन दिवाकर समन्तभद्र से पूर्ववर्ती हैं। अतः सिद्धसेन की कृतियों की समन्तभद्र की कृतियों में समरूपता दिखाई देने के आधार पर यह अनुमान कर लेना उचित नहीं होगा कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति नहीं है। समन्तभद्र ने जब सिद्धसेन के सन्मतितर्क से आप्तमीमांसा में अनेक श्लोंकों को ग्रहण किया है तो यह भी सम्भव है कि उन्होंने रत्नकरण्डकश्रावकाचार (जिसका समन्तभद्रकृत होना भी विवादास्पद है) में भी सिद्धसेन के न्यायावतार से कुछ श्लोक अभिगृहीत किये हों। पुन: जब न्यायावतार का दूसरा व चौथा पूरा का पूरा श्लोक याकनीसनु हरिभद्र के अष्टकप्रकरण और षड्दर्शनसमुच्चय में पाया जाता है तो फिर न्यायावतार को हरिभद्र के बाद होने वाले सिद्धर्षि की वृत्ति कैसे माना जा सकता है? इससे यह स्पष्ट है कि न्यायावतार की रचना हरिभद्र से पूर्व हो चुकी थी फिर इसे सिद्धर्षि की कृति कैसे माना जा सकता है? अत: डॉ० पाण्डेय और प्रो० ढाकी का यह मानना कि न्यायावतार मूल सिद्धर्षि की कृति है किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। अपने पक्ष के बचाव में डॉ०पाण्डेय का यह तर्क कि ये श्लोक सिद्धसेन की लुप्त प्रमाण द्वात्रिंशिका के हों, अधिक वजनदार नहीं लगता है। जब न्यायावतार के ये श्लोक स्पष्ट रूप से हरिभद्र के अष्टकप्रकरण और षड्दर्शन समुच्चय से मिल रहे हों तो फिर द्राविड़ी प्राणायाम के द्वारा यह कल्पना करना कि वे किमी लुप्त प्रमाणद्वात्रिंशिका के श्लोक होंगे, युक्तिसंगत नहीं है। जब सिद्धसेन के इस न्यायावतार में अभी ३२ श्लोक हैं तो फिर सम्भव यह भी है कि इसका ही अपर नाम प्रमाणद्वात्रिंशिका हो? पुनः जब हरिभद्र के द्वारा न्यायावतार पर वृत्नि लिखे जाने पर स्पष्ट सूचनायें प्राप्त हो रही हैं तो फिर यह कल्पना करना कि वे हरिभद्र प्रथम न होकर कोई दूसरे हरिभद्र होंगे मुझे उचित नहीं लगता। जब याकिनीसूनु हरिभद्र न्यायावतार की कारिका अपने ग्रन्थों में उद्धृत कर रहे हैं तो यह मानने में क्या बाधा है कि वृत्तिकार भी वे ही हों? न्यायावतार की विषय वस्तु से यह स्पष्ट है कि वह जैन प्रमाण शास्त्र की आद्य रचना है। उसमें अकलंक के काल में विकसित तीन प्रमाणों यथा- स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क या ऊह का उपलब्ध नहीं होना तथा आगमिक तीन प्रमाणों की सूचना प्राप्त होना यही प्रमाणित करता है कि वह अकलंक (८वीं शती) से पूर्व का ग्रन्थ है। सिद्धर्षि का काल अकलंक से परवर्ती है और उन्होंने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002085
Book TitleSiddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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