SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्याहाद : एक सापेक्षिक दृष्टि ७३ उन्हें यह आशंका थी कि कहीं "स्याद्वाद" को संशयवाद-संभववाद, अनिश्चयवाद आदि के अर्थ में ग्रहण नहीं कर लिया जाये। इसी आशंका से बचने एवं प्रकथन को निश्चयात्मक बनाने की दृष्टि से उन्होंने प्रत्येक प्रकथन में 'स्यात्' के साथ "एवकार" (ही) के प्रयोग का प्राविधान किया (जैसे स्यादस्त्येवघट:); और यह स्पष्ट भी किया कि “एवकार" (हो) यह द्योतित करता है कि जिस अपेक्षा से वस्तु में अमुक धर्म का प्रतिपादन किया गया है उस अपेक्षा से वह वैसी ही है"उसमें किसो प्रकार के संदेह आदि का अवकाश नहीं है। “एवकार" (ही) का प्रयोग किसी दुराग्रह को प्रकट करने के लिए न होकर यह स्पष्ट करने के लिए होता है कि वस्तु तत्त्व के बारे में जो कुछ कथन किया गया है, वह उस अपेक्षा से पूर्णतः सत्य है, उस दृष्टिकोण या अपेक्षा से वस्तु वैसो ही है अन्य रूप नहीं। इस प्रकार "एवकार" (ही) अपने विवक्षित विषय के संदर्भ में शंकाओं का निराकरण करके उसे दृढ़ता प्रदान करता है । श्लोकवार्तिक में "एवकार" (ही) के प्रयोग के विधान का आशय स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि "वाक्यों में 'ही' का प्रयोग अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति और दृढ़ता के लिए करना ही चाहिए, अन्यथा कहीं-कहीं वह वाक्य नहीं कहा गया सरीखा समझा जाता है।"' युक्त्यनुशासन में स्वामी समन्तभद्र ने “एवकार" (ही) के इसी भाव को अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि "जो पद एवकार से उपहित है (अर्थात् अवधारणार्थक "एव" नाम के निपात से विशिष्ट है, जैसे "जोव एव") वह अविवक्षित अर्थ से विवक्षित अर्थ को अलग करता है अर्थात् अविवक्षित अर्थ का व्यवच्छेदक है। वह सब विवक्षित पर्यायों, सामान्यों और विशेषों को अविवक्षित पर्यायों, सामान्यों और विशेषों से अलग करता है अन्यथा उस एक पद से ही उन अविवक्षितों का भी बोध हो जायेगा और इससे पदार्थ की भी हानि उसी प्रकार ठहरतो है जिस प्रकार कि विरोधी की हानि होती है। १. वाक्येवधारणं तावदनिष्टार्थ निवृत्तये । कर्तव्यमन्यथानुक्त समत्वात्तस्य कुत्रचित् ।। श्लोकवार्तिक, १:६:५३ । २. यदेवकारोपहितं पदं तद्-अस्वार्थतः स्वार्थमवच्छिनत्ति । पर्याय-सामान्य-विशेष-सर्वं पदार्थहानिश्च विरोधिवत्स्यात् ॥ युक्त्यनुशासन, का. ४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy