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________________ स्याद्वाद : एक सापेक्षिक दृष्टि (अ) सप्तभंगों में वस्तु का ही विधान और निषेध करना जैन आचार्यों ने अपने प्रकथनों में वस्तु के गुणधर्म के स्थान पर वस्तु का ही विधान या निषेध कर दिया है। यही परवर्ती भ्रान्तियों का सबसे बड़ा कारण है। क्योंकि घट है और घट नहीं है ऐसा कहना विरोधात्मक है। जो वस्तु हमारे समक्ष प्रस्तुत है उसी का निषेध करना कैसे सम्भव है ? यद्यपि जैन आचार्यों का आशय वस्तु का ही विधान या निषेध करना नहीं था बल्कि उनका आशय वस्तु के गुण-धर्मों के विधान या निषेध से ही था। जैसे 'स्यादस्त्येव घटः' में घट वस्तु का विधान नहीं है। घट का अस्तित्व तो है ही। उस कथन में केवल घट के घटत्व धर्म का विधान है। वस्तुतः इस प्रकथन में केवल यही स्पष्ट किया गया है कि स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से घट में घटत्व धर्म है। किन्तु इस तथ्य को जैनआचार्यों ने प्रारम्भ में स्पष्ट नहीं किया था। जिसके कारण उनके कथन में जैनेतर दार्शनिकों को विरोध प्रतीत होने लगा और उस सम्बन्ध में तरह-तरह की भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गयीं। इस तथ्य का स्पष्टीकरण डॉ० सागरमल जैन ने अपने लेख ("सप्तभंगी, प्रतीकात्मक और त्रिमूल्यात्मक, तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में"') में बड़े अच्छे ढंग से किया है। उन्होंने लिखा है कि इसके प्रस्तुतीकरण का यह ढंग थोड़ा भ्रान्तिजनक अवश्य है, स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व का जो विधान किया गया था, उसी का द्वितीय भंग में निषेध कर दिया गया है और ऐसी स्थिति में स्याद्वाद को सन्देहवाद या आत्म-विरोधी कथन करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रान्ति हो जाना स्वाभाविक है। शंकर प्रभति विद्वानों ने स्याद्वाद की जो आलोचना की थी, उनका मुख्य आधार यही भ्रान्ति है। 'स्यात् अस्ति घटः और स्यात् नास्ति घट:' में जब स्यात् शब्द को दृष्टि से ओझल कर या उसे सम्भावना के अर्थ में ग्रहण कर "अस्ति" और "नास्ति" पर बल दिया जाता है तो आत्म विरोध का आभास होने लगता है। पूनः, जैन-आचार्यों के लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से प्रथम भंग का निषेधक या विरोधी मान लिया जायेगा तो निश्चय ही यह सिद्धान्त संशयवाद या १. देखिये-महावीर जयन्ती स्मारिका १९७७, पृ० १-४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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