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________________ ( ८ ) भिन्न अपेक्षाओं से एक हो व्यक्ति छोटा या बड़ा कहा जा सकता है अथवा एक हो वस्तु ठण्डी या गरम कही जा सकती है । जो संखिया जनसाधरण की दृष्टि में विष (प्राणापहारी) है, वही एक वैद्य की दृष्टि में औषधि ( जोवन -संजीवनी) भी है । अतः यह एक अनुभवजन्य सत्य है कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म-युगलों की उपस्थिति देखी जाती है । यहाँ हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वस्तु में अनेक विरोधो धर्म युगलों को उपस्थिति तो होती है, किन्तु सभी विरोधी धर्म युगलों की उपस्थिति नहीं होती है । इस सम्बन्ध में धवला का निम्न कथन द्रष्टव्य है - "यदि (वस्तु में) सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य, अचैतन्य, भव्यत्व और अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जावेगा । अतः यह मानना अधिक तर्कसंगत है कि वस्तु में केवल वे ही विरोधी धर्म युगल युगपत् रूप में रह सकते हैं, जिनका उस वस्तु में अत्यन्ताभाव नहीं है । किन्तु इस बात से वस्तुतत्त्व का अनन्तधर्मात्मक स्वरूप खण्डित नहीं होता है और वस्तुतत्त्व में नित्यताअनित्यता, एकत्व - अनेकत्व, अस्तित्व - नास्तित्व, भेदत्व - अभेदत्व आदि अनेक विरोधी धर्म युगलों की युगपत् उपस्थिति मानी जा सकती है । आचार्य अमृतचन्द्र 'समयसार' की टीका में लिखते हैं कि अपेक्षा भेद से जो है, वही नहीं भी है, जो सत् है वह असत् भी है, जो एक है वह अनेक भी है, जो face है वही अनित्य भी है । २ वस्तु एकान्तिक न होकर अनेकान्तिक है। आचार्य हेमचन्द्र अन्ययोग व्यवच्छेदिका में लिखते हैं कि विश्व की समस्त वस्तुएँ स्याद्वाद की मुद्रा से युक्त हैं, कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता । यद्यपि वस्तुतत्त्व का यह अनन्तधर्मात्मक एवं अनेकान्तिक स्वरूप हमें असमंजस में अवश्य डाल देता है किन्तु यदि वस्तु स्वभाव ऐसा ही है, हम क्या करें ? बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों में 'यदिदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते के वयं ? पुनः हम जिस वस्तु या द्रव्य की विवेचना १. धवला खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृ० १६७ - उद्धृत तोर्थंकर महावीर - डॉ० भारिल्ल २. यदेव तत् तदेव अतत् यदेवेकं तदेवानेकं यदेव सत् तदेवासत्, यदेवनित्यं तदेवानित्यं- - समयसार टीका (अमृतचन्द) ३. आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रा नतिमेदि वस्तु — अन्ययोगव्यवच्छे दिका ५ । Jain Education International , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002082
Book TitleSyadvada aur Saptabhanginay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhikhariram Yadav
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size11 MB
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