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________________ शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व १७७ पर प्राय: अंकुश और चाबुक की मार खाते हुए दुःखों को सहते हैं, उसी प्रकार अविनीत शिष्य गुरु से प्रताड़ित होते हुए दुःख का अनुभव करते हैं। १ अत: जो शिष्य विनय धर्म को छोड़कर अविनय के मार्ग पर चलते हैं वे अपने ही पैर में अपने हाथों से कुल्हाड़ी मारते हैं। विनीत और अविनीत शिक्षार्थी का गुरु पर प्रभाव विनीत जहाँ शालीनता और सद्गुणों की राह पर चलता है, वहीं अविनीत असद्गुणों को अंगीकार करता है। इतना तो निश्चित ही है कि जो शिष्य गुरु की दृष्टि में अनैतिक एवं दुराचारी है उसे गुरु यदि कुछ सिखाना भी चाहते हैं तो वे नहीं सिखा पाते हैं। एक ओर बिना विचारे अनाप-शनाप बोलनेवाले दुष्ट शिष्य जहाँ अपनी कुप्रवृत्तियों से विनम्र और मृदुभाषी गुरु को भी क्रुद्ध बना देते हैं, वहीं दूसरी ओर गुरु के मनोनुकूल चलनेवाले पटता से कार्य सम्पन्न करनेवाले विनीत शिष्य शीघ्र ही रुष्ट होनेवाले गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं।।२।। विनीत शिष्य को शिक्षा देते हुए गुरु वैसे ही प्रसन्न होते हैं जैसे सारथी (अश्व शिक्षक) अच्छे घोड़े को हाँकते हुए आनन्द की अनुभूति करता है, किन्तु ठीक इसके विपरीत अबोध एवं अविनीत शिष्य को शिक्षा देते हुए गुरु वैसे ही खिन्न होते हैं, जैसे दुष्ट घोड़े को हाँकता हुआ उसका वाहक।४३ अविनीत शिष्य से खिन्न होकर गुरु सोचते हैं - मुझे इन दुष्ट शिष्यों से क्या लाभ? इनसे तो मेरी आत्मा व्याकुल ही होती है। इन्हें पढ़ाया-लिखाया, पाला-पोषा फिर भी ये उसी प्रकार स्वेच्छाचारी हो गये हैं, जिस प्रकार पंख निकल आने पर हंस पक्षी। अतः इन्हें छोड़ देने में ही कल्याण है।४४ शिक्षार्थी के कर्तव्य बिना पूछे कुछ न बोलना, सर्वदा सत्य बोलना अर्थात् क्रोधादि में असत् वचनों का प्रयोग न करना, गुरु की प्रिय और अप्रिय दोनों ही शिक्षाओं को धारण करना।४५ गुरु के निकट सदैव प्रशान्त भाव से रहना अर्थात् वाचाल न बनना, अर्थपूर्ण पदों को सीखना, निरर्थक बातें न करना। गुरु द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध न करके शान्त रहना, क्षुद्र व्यक्तियों के साथ हंसी-मजाक और अन्य क्रीड़ा न करना। अध्ययन के समय अध्ययन और बाकी समय में एकाकी ध्यान करना। अगर गलत व्यवहार कर भी ले तो उसे छिपायें नहीं, बल्कि किया हो तो 'किया' और न किया हो तो 'नहीं किया' कहना। ५ अकेले में वाणी से अथवा कर्म से कभी भी गुरु के प्रतिकूल आचरण न करना।४७ गुरु की आज्ञा के बिना कोई भी कार्य न करना।४८ प्रिय अथवा कठोर शब्दों द्वारा आचार्य जो मुझ पर अनुशासन करते हैं, वह मेरे लाभ के लिए है- ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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