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________________ १५२ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन शिक्षा देने के बाद नवनियुक्त उत्तराधिकारी आचार्य को आशीर्वाद देते हुए कर्तव्यबोध कराते हुए कहते थे कि उत्पत्ति स्थान में छोटी-सी भी नदी उत्तम नदी जैसे विस्तार के साथ बढ़ती हुई समुद्र तक जाती है, उसी प्रकार तुम भी शील और गुणों में आगे बढ़ो। तुम विलाव के शब्द की भाँति आचरण मत करना, क्योंकि विलाव का शब्द पहले जोर का होता है फिर क्रम से मन्द होता जाता है, उसी तरह रत्नत्रय की भावना को पहले बड़े उत्साह से प्रारम्भ करके धीरे-धीरे मन्द मत करना। इस तरह अपना तथा संघ दोनों का विनाश सम्भव है। क्योंकि जो जलते हुए अपने घर को भी आलस्यवश बचाना नहीं चाहता, उस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है कि वह दूसरे के जलते हुये घर को बचायेगा। अत: ज्ञान, दर्शन और चारित्र विषयक अतिचारों को दूर करना चाहिये। धार्मिक और मिथ्या दृष्टियों के साथ विरोध नहीं करना चाहिए। चित्त की शान्ति भंग करनेवाला वाद-विवाद भी नहीं करना चाहिए। क्रोधादि कषाय अपनी और दूसरे की मृत्यु के कारण हैं। कषाय विष रूप होते हैं, अतः इन्हें छोड़ना चाहिए। पुन: आचार्य कहते थे- आगम के सारभूत रत्नत्रय में जो गण को और अपने को स्थापित करता है, वही गणधर कहलाता है। मेरे अधीन बहुत मुनि हैं, इसलिए अपने आप में गणी होने का घमण्ड नहीं होना चाहिए। हमारा यह गुरु आलोचित दोषों को दूसरे से नहीं कहता, ऐसा मानकर शिष्यों के द्वारा प्रकट किये अपराधों को किसी अन्य से नहीं कहना चाहिये। कार्यों में समदर्शी रहकर बाल और वृद्ध यतियों से भरे गण की रक्षा अपनी आँख की तरह करनी चाहिये। जिस क्षेत्र में राजा न हो अथवा जिस क्षेत्र का राजा दुष्ट हो उस क्षेत्र को भी त्याग देना चाहिये। जिस क्षेत्र में प्रव्रज्या प्राप्त न हो अर्थात् शिष्य न बने, जिस क्षेत्र में संयम का घात हो, उस क्षेत्र को त्याग देना चाहिये। बाल और वृद्ध मुनियों से भरे हुए गण में सर्वज्ञ की आज्ञा से सदा अपनी शक्ति और भक्ति से वैयावृत्य करने में तत्पर रहना चाहिये, क्योंकि सर्वज्ञ देव की आज्ञा है कि वैयावृत्य करना चाहिए। वैयावृत्य करने से कर्ता का उपकार होता है। निर्दोष रत्नत्रय का दान होता है। संयम में सहायता मिलती है। जैसे आचार्य की धारणा से संघ की धारणा होती है, वैसे ही एक साधु की धारणा से अर्थात् वैयावृत्य करने से साधु समुदाय की धारणा होती है। आचार्य (गुरु) के प्रकार 'राजप्रश्नीय' में आचार्य (गुरु) के तीन प्रकार बताये गये हैं - कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य।७८ जो ७२ कलाओं की शिक्षा देते थे वे कलाचार्य; जो शिल्प, विज्ञान आदि की शिक्षा देते थे वे शिल्पाचार्य तथा जो धर्म का प्रतिबोध कराते थे वे धर्माचार्य कहलाते थे। इनमें से कलाचार्य और शिल्पाचार्य का भौतिकता की दृष्टि से महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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