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________________ द्वितीयोऽङ्कः पुरुष:- (साक्षेपम्) लघीयसीति विशेषणं विश्वोपकारकरणकच्छुराभ्यामात्मनो व्यवसायाऽध्यवसायाभ्यां प्रतिहतमुपात्तवानसि । महत्त्वक्षीबतां पुनरस्माकमयमकाण्डोपस्थितः प्रचेतः प्रभवः प्रतिभयाडम्बरः समूलकाषं कषितवान् । अपि च- अपारेऽप्यस्मिन् त्रिभुवनपारावारे परमार्थतस्त्वमेव महत्त्ववान्, यस्याऽयं वाङ्मनसयोरुत्तीर्णः स्वभावशीर्णप्रत्युपकारस्पृहाकौलीनवृत्तिर्निरर्गलः परोपकाररसावेशः । । मित्रानन्द: सम्पत् परस्य रोहन्ती भाग्यानां मुखमीक्षते । स्वशक्तितोलनं नाम माहात्म्यं तु महात्मनाम् । । ८ । । पुरुषः- को नामात्र त्रिलोकीविश्रुते राजवर्त्मनि भ्रान्तिमावहति ? स्फुरन्त्युपायाः शान्त्यर्थमनुकूले विधातरि । प्रतिकूले पुनर्यान्ति तेऽप्युपाया अपायताम् । । ९ ॥ ततः कृतं कालविलम्बेन । आक्रामन्ति प्राणाः कण्ठपीठम् । अतः परं ३१ पुरुष - (क्रोधपूर्वक) आपने विश्व का उपकार करने को उद्यत अपने प्रयास और सङ्कल्प के लिए 'लघीयसि' (तुच्छ व्यक्ति में)- इस सर्वथा विपरीत विशेषण का प्रयोग किया है। असमय में उपस्थित पाशपाणि के भय ने महत्त्वाभिमानी मुझको पूर्णरूप से खिन्न कर दिया है। और भी - इस अपार त्रिलोकरूपी महासागर में वस्तुतः आप ही एकमात्र महत्त्वशाली हैं जिनमें मन और वाणी (के वर्णन) से परे और प्रत्युपकार की स्पृहा से सर्वथा रहित ऐसी निःस्वार्थ परोपकारपरायणता है। -- मित्रानन्द — दूसरे (तुच्छ व्यक्तियों) की सम्पत्ति का उदय तो भाग्य के अधीन होता है, किन्तु महापुरुषों का माहात्म्य यही है कि वे (भाग्य के आश्रित न रहकर ) अपने पुरुषार्थ पर भरोसा रखते हैं । । ८ । । पुरुष - कौन है जो इस त्रिलोकप्रसिद्ध विधान के विषय में भी भ्रान्त धारणा रखता है? विधाता (भाग्य) के अनुकूल होने पर शान्ति हेतु तत्काल अनेक उपाय सूझ जाते हैं, किन्तु विधाता के प्रतिकूल होने पर वे ही उपाय अपाय बन जाते हैं । । ९ अतः विलम्ब करना व्यर्थ है। मेरे प्राण निकल रहे हैं। इतना ही नहीं, || सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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