SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका को बहुत पश्चात्ताप होता है और वह मकरन्द को दण्डमुक्त कर नरदत्त को शूली पर लटकाने का आदेश दे देता है, किन्तु दयालु मित्रानन्द उसको क्षमा कर देता है । तदनन्तर श्रान्त होने के कारण प्रातःकाल बातचीत करने का विचार कर सभी विश्राम करने चले जाते हैं । ---- दशम अङ्क – सिद्धाधिनाथ, जिसने कापालिक के वेष में कौमुदी और सुमित्रा का अपहरण कर लिया था, उन दोनों के नाम और वेष बदलकर उन्हें अनुचरी लम्बस्तनी के भवन में छुपाकर रखता है । मैत्रेय भी रत्नाकरदेश में मित्रानन्द से बिछुड़ने के बाद वहीं पर कुन्दलता के भवन में मान्त्रिक के रूप में रहता है । सिद्धाधिनाथ के अनुचर कहीं से मित्रानन्द को पकड़कर उसके समक्ष लाते हैं । सिद्धाधिनाथ मित्रानन्द को विचित्र वेशभूषा धारण किये होने के कारण पहचान नहीं पाता और उसको छल से कौमुदी के ही हाथों मरवाना चाहता है, किन्तु बाद में जब उसे ज्ञात होता है कि यह मित्रानन्द है, तो वह बहुत लज्जित होता है और अपने दुष्कृत्य के लिए मित्रानन्द से क्षमायाचना करता है। उसके बाद वह छुपाकर रखी गई कौमुदी और सुमित्रा को मित्रानन्द को समर्पित कर देता है । पुनः मकरन्द और मान्त्रिक वेषधारी मैत्रेय को भी वहाँ लाया जाता है। सभी एक दूसरे से मिलकर अत्यन्त आनन्दित होते हैं । अन्त में सिद्धाधिनाथ उन सबको चिरकाल तक स्वतन्त्र रहने का आशीर्वाद देता है। XXI प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण मित्रानन्द - यह प्रकरण का वणिग्-जातीय धीरप्रशान्त कोटि का नायक है । इसमें दयालुता, विनयशीलता, नैतिकता आदि सभी गुण विद्यमान हैं जो धीरप्रशान्त नायक के लिए अपेक्षित होते हैं। मित्रानन्द अत्यन्त दयालु है । स्वयं सदैव सङ्कटग्रस्त रहने पर भी उसे अपनी चिन्ता नहीं, अपितु वह सर्वदा दूसरों के दुःख के विषय में ही सोचा करता है— 'मनस्तु मे सदाऽप्यन्यदुःखसङ्क्रान्तिदर्पण:' । सिद्ध को दुःखी देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठता है और वह स्वयं सङ्कट में पड़कर भी उसको पाशपाणि के चङ्गुल से मुक्त कराता है। उसकी दृष्टि में परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं, चाहे उसे सम्पादित करने में अपना अहित ही क्यों न हो जायक्रियते स्वस्य कल्याणहेतवे । परोपकारः ततोऽपि यद्यकल्याणं कल्याणात्तत् पदं परम् ।।२/१३ - मित्रानन्द अत्यन्त क्षमावान् भी है। पुनः पुनः अपकार की चेष्टा करने वाले सिद्धाधिनाथ को भी वह सहज ही में क्षमा कर देता है। मकरन्द को प्रताड़ित करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy