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________________ सप्तमोऽङ्कः ११७ स्थविर:- वत्से ! सपत्नीसम्भावनया त्वममात्यपल्या निष्कासिताऽसि। कौमुदी- कमेण च मग्गे भमंती आणिं तुम्हाणं सत्ये मिलिदा। (क्रमेण च मार्गे भ्राम्यन्ती इदानीं युष्माकं सार्थे मिलिता।) वृद्धा- वत्से! दिट्ठिया, चिट्ठदि दे पई मित्ताणंदो रयणायरउरे। एसा विमह पुत्ती सुमित्ता तुह पइणो मित्तस्स मयरंदस्स रयणायराहिवइणा परिणेदुं पडिवादिदा वट्टदि। (वत्से ! दिष्टया, तिष्ठति ते पतिर्मित्रानन्दो रत्नाकरपुरे। एषाऽपि मम पुत्री सुमित्रा तव पत्युमित्रस्य मकरन्दस्य रत्नाकराधिपतिना परिणेतुं प्रतिपादिता वर्तते।) स्थविरः- (सभयम्) एषा व्याघ्रमुखी पल्लिरावासो वज्रवर्मणः। चौरेभ्यो भयमेतस्यां राज्ञोऽपि किमु मादृशाम्? ।। २।। स्थविर-पुत्रि! सौत होने की शङ्कावश अमात्य की पत्नी ने तुमको निकाल दिया। कौमुदी-और उसके बाद मार्ग में भटकती हुई मैं अब तुमसे मिल गयी। वृद्धा-पुत्रि! सौभाग्यवश तुम्हारा पति मित्रानन्द इस समय रत्नाकरपुर में ही है और रत्नाकरनरेश ने मेरी पुत्री सुमित्रा का विवाह भी तुम्हारे पति के मित्र मकरन्द के साथ करना निश्चित कर दिया है। स्थविर-(भयपूर्वक) यह व्याघ्रमुखी नाम की बस्ती (पल्ली) चोरों के मुखिया वज्रवर्मा का निवास स्थान है। इस में चोरों से राजा को भी भय लगता है, तो हम जैसे (साधारण लोगों) का कहना ही क्या।।२।। १. इयाणिं ख। २. मेत्तस्स ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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