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________________ ५७ तृतीयोऽङ्कः सर्वेऽपि किं व्रतभृतः सुखमासते ते? किञ्चाद्य मां किमसि संस्मृतवानकस्मात्?।।२०।। कुलपति:- (सादरम्) हालाहलहरी विद्यां वन्द्यां देवैः सदानवैः। एतस्मै देवि! जामात्रे प्रसीद प्रतिपादय।।२१।। (देवता मित्रानन्दस्य शिरसि दक्षिणभुजं निधाय कर्णे-एवमेव।) मित्रानन्दः– महाप्रसादः (इत्यभिधाय प्रणमति।) देवता- मुनीन्द्र! व्रजामो वयम्। कुलपतिः– निष्प्रत्यूहास्त्रिदशसम्पदो भूयासुः। (देवता तिरोधत्ते।) (नेपथ्ये) आश्रम के सभी तपस्विजन सुखपूर्वक रह रहे हैं? और आज आपने अकस्मात् किस कारण मेरा स्मरण किया है? ।।२०।। कुलपति-(आदरपूर्वक) हे देवि! जामाता को देवों और दानवों द्वारा वन्दनीया विषहारिणी विद्या का उपदेश देने की कृपा करें।।२१।। (देवता मित्रानन्द के सिर पर दाहिना हाथ रखकर कान में मन्त्रोपदेश देती हैं।) मित्रानन्द- यह तो महान् प्रसाद है (यह कहकर देवता को प्रणाम करता है)। देवता- मुनिवर! अब मैं प्रस्थान करती हूँ। कुलपति-देवताओं का निर्विघ्न अभ्युदय हो। (देवता अन्तर्हिते हो जाती हैं।) (नेपथ्य में) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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