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________________ शीलदूतम् हिन्दी अनुवाद सहित भुक्त्वा भोगान् सूभगतिलक: कोशया सामिद्धान् धन्यो मान्यो निखिलविदुषां भद्रया स्थूलभद्रः । घने श्रुत्वा जनकनिधनं जातसंवेगरंगः स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ।।१।। १. समस्त विद्वत्समुदाय में सम्माननीय, ऐश्वर्यशालियों में श्रेष्ठ एवं उत्तम स्थूल भद्र ने प्रियतमा कोशा के साथ उत्कृष्ट भोगों को भोग लेने पर जब पिता के निधन का समाचार सुना तब उन्हें वैराग्य हो गया और रामगिरि नामक पर्वत पर सघन छाया वाले वृक्षों से युक्त आश्रमों में निवास किया। चित्ते मत्वा विषयनिचयं सत्वरं गत्वरं वै गच्छन्नेषोऽध्वनिधनजिनध्यान संलीनचित्तः । शान्तं कान्तं रसमिव गिरौ श्रीगुरूं भद्रबाहुं वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।।२।। २. मन में विपयों की क्षणभंगुरता को जान कर मार्ग में चलते-चलते भगवान जिन के ध्यान में वे (स्थूलभद्र) डूब गये। उस समय उन्होंने पर्वत पर कमनीय शान्तरस के समान उन सद्गुरु भद्रबाहु को देखा जो टीले को उखाड़ने के लिये पर्वत पर तिरछे दांतों का प्रहार करने वाले गज के समान दर्शनीय थे। शिक्षाकामं कृतनतिममुं ध्वस्तकामं निरीक्ष्या घख्यावेवं गुरूरूरूगिरा वत्स ! मोहं जयैतम् । संयोगेऽपि प्रभवति यतः प्राणिनामत्र दुःखं कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे ? ।।३।। ३. जिस का काम विकार ध्वस्त हो चुका था, उस शिक्षा की इच्छा वाले प्रणत स्थूलभद्र को देख कर गुरू ने श्रेष्ठ वाणी में इस प्रकार कहा -- 'वत्स ! यह मोह छोड़ दो। यहाँ संयोग में भी प्राणियों को दुःख होता है, अतः गले लगने की चाह सँजो कर जो दूर स्थित है उस प्रेमी के दुःख का क्या कहना है ? धन्यं मन्ये मुनिपरिवृतात्मानमेनं किलाधाअनिन्द्यं सद्यः परमसुखदं यन्नतं वः पदाब्जम् । पीत्वा हृद्यां विशदहृदयो देशनां सोऽपि सूरेः प्रीतः प्रीतिप्रमुखवधनं स्वागतं व्याजहार।।४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002079
Book TitleShildutam
Original Sutra AuthorCharitrasundar Gani
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages48
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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