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________________ से सहते रहे। शरीर में मारणांतिक वेदना होनेपर भी सहन करने की ताकद ध्यानबल से ही प्राप्त हुई। ध्यान बल का प्रभाव यह हुआ कि शरीर पर दारुण कष्ट आने पर भी सहने की दिव्य शक्ति प्राप्त हुई। महावीर को ध्यानस्थ अवस्था में अडिग देखकर मिथ्थादृष्टि देव संगम भी महावीर के चरणों में झुक गया। क्षमा मांगी और अपने स्वस्थान को चला गया। दिव्यशक्ति की ही अंत में विजय होती है। शारीरिक वेदनाओं और कष्टों को सहन करने की शक्ति भी ध्यानबल से ही प्राप्त होती है। उपसर्ग तीन प्रकार के माने जाते हैं। जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। दीर्घकालीन तपोयोग की साधना में महावीर को अनेक उपसर्ग और परिषह सहने पड़े। उनमें अनुकूल; प्रतिकूल उपसर्ग आये। किन्तु उन सबमें कानों से कील निकालने का उपसर्ग सबसे अधिक कष्टप्रद था। महावीर के जीवन में यह उत्कृष्ट उपसर्ग था। शेष सब जघन्य और मध्यम थे। इन तीनों प्रकार के उपसर्गों में महावीर ने समभाव रखकर बहुत सी कर्म निर्जरा कर दी। ध्यान से यही लाभ है कि शरीर का ममत्व हटकर समत्व की प्राप्ति होती है। महावीर ने अपने साधनाकालीन जीवन में देह का निरीक्षण न करके आत्मा का निरीक्षण किया था। आत्मा को देखने की प्रक्रिया लोकभाषा में अन्तर्मुखी प्रक्रिया है। अन्तर्मुखी प्रक्रिया शरीर के द्वारा ही हो सकती है और वह भी औदारिक शरीर द्वारा। ध्यान के प्रभाव से योगी पुरुष की विष्ठा भी रोग नाशक बनती है। सभी देहधारियों का मल दो प्रकार का होता है। १) कान, नेत्रादि से निकलने वाला और २) शरीर से निकलनेवाला मलमूत्र, पसीना आदि। ध्यान के बल से यह दोनों प्रकार का मल रोगियों के समस्त रोगों का नाशक होता है। वैसे ही योगियों के शरीर के नाखून, बाल, दांत आदि विभिन्न अवयव भी औषधिमय बन जाते हैं। इसके लिए आगम में 'सर्वोषधिलब्धि' शब्द का प्रयोग मिलता है। मानव जीवन में स्थित पांचों इन्द्रियों में से किसी भी एक इन्द्रिय के द्वारा समस्त इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान होना भी योगजनित (ध्यानजनित) अभ्यास का ही सुफल है। इसके लिए आगम में 'सभिन्न स्रोतलब्धि' शब्द का प्रयोग मिलता है। ध्यान के बल से शरीर में अनेक लब्धियां उत्पन्न होती हैं, किन्तु ध्यानयोगी उसका प्रयोग नहीं करते हैं।३१ सनत्कुमार चक्रवर्ती३२ के शरीर में सोलह-सोलह महारोग उत्पन्न हुए। खुजली, सूजन, बुखार, श्वास, अरुचि, पेट में दर्द, आँखों में भयंकर वेदना आदि व्याधियाँ, सनत्कुमार चक्रवर्ती के शरीर में सात सौ वर्ष तक रहीं। मारणांतिक वेदनाओं को समभाव से सहन करने के कारण उन्हें लब्धियां प्राप्त हो गईं। इन्द्र द्वारा की गई प्रशंसा को सुनकर 'विजय' और 'वैजयन्त' देव वैद्य का रूप बनाकर सनत्कुमार चक्रवर्ती के पास आये और बोले कि हम दोनों वैद्य हैं। आप रोग से क्यों दुःखी होते हो? तब चक्रवर्ती ने कहा कि ४६२ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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