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________________ का चिन्तन, अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थिरतापूर्वक एक वस्तु के विषय में चिन्तन, अथवा ध्येय पदार्थ के विषय में अक्षुण्ण रूप से तैलधारा की भाँति चित्तवृत्ति के प्रवाह का चिन्तन करना ध्यान कहा जाता है। ___योग शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ _ 'योग' धातु की व्युत्पत्ति 'युज्' धातु से मानी गई है। 'युज्' धातु के अनेक अर्थ हैं, उनमें से 'जोड़ना' या 'समाधि' मुख्य है । बौद्ध परम्परा में युज् धातु का प्रयोग 'समाधि' अर्थ में लिया है और वैदिक परम्परा में दोनों ही अर्थ प्रचलित हैं, जैसे कि 'चित्तवृत्ति निरोध ही योग है' अथवा समत्व और उदासीन भाव से कर्म करने में कुशलता को योग कहा है या जीवात्मा परमात्मा का सुमेल ही योग है।५ जैन धर्म में योग शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में किया गया है६ - १. आस्रव (क्रिया) २. जोड़ना, ३. ध्यान। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से कर्मों का आस्रव होता है। इन त्रिविध क्रिया द्वारा आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंद हलन चलन की क्रिया (व्यापार) ही योग है। जिसके द्वारा कमों का आगमन होता है उसे आगम भाषा में 'आस्रव' कहते हैं। इसलिये युज् धातु का अर्थ 'आस्रव' या 'क्रिया' किया है। जैन साहित्य ग्रन्थों में 'युज्' धातु का 'जोड़ना' अर्थ भी उपलब्ध होता है। कुंदकुंदाचार्य के कथनानुसार आत्मा को तीन विषयों के साथ जोड़ने को कहा है८1 (१) रागादि के परिहार में आत्मा को लगाना - आत्मा को आत्मा से जोड़कर रागादि भाव का त्याग करना। (२) सम्पूर्ण संकल्प-विकल्पों के अभाव में आत्मा को जोड़ना। (३) विपरीत अभिनिवेश का त्याग करके जैनागमों में कथित तत्त्वों में आत्मा को जोड़ना। हरिभद्र सूरि ने मोक्ष से जोड़ने वाले समस्त विशुद्ध धर्म व्यापार (धार्मिक क्रिया) को योग कहा है। यहां पर स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलंबन और अनालम्बन से संबद्ध धर्म व्यापार को योग कहा है। उपाध्याय यशोविजयजी ने समस्त धर्म व्यापार से पाँच समिति और तीन गुप्ति -अष्ट प्रवचन माता की प्रवृत्ति को योग कहा है। 'युज' - 'योग' शब्द का तीसरा अर्थ है १ - 'ध्यान'। जिस योगबल से आत्मा को अपने स्वभावस्थित असली स्वरूप में जाना जाता है उसे योग कहते हैं।२। यहाँ 'योग' शब्द ध्यान का पर्यायवाची है। 'ध्यान' शब्द के लिये तप, समाधि, निरोध, स्वान्तनिग्रह, अन्तः संलीनता, साम्यभाव, समरसीभाव, योग, सवीर्यध्यान आदि शब्दों का प्रयोग होता है। १३ प्रकारान्तर में इनमें से 'ध्यान' 'समाधि' और 'योग' शब्द का प्रचलन अधिक हुआ है। जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप २५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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