SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धसेनसूरि की मानी जाती है। बृहत्कल्पचूर्णि प्रलम्बसूरि की है। अनुयोगद्वार के 'अंगुल' पद पर लिखी गई चूर्णि जिनभद्र की है और दशवैकालिक पर अगस्त्यसिंह की । नन्दी चूर्णि :- प्रस्तुत चूर्णि मूल सुत्रानुसारी है तथा प्राकृत में है। कंचित् ही यत्रतत्र संस्कृत का प्रयोग मिलता है। इसमें सर्वप्रथम जिन और वीर स्तुति की गई है, तदनन्तर संघस्तुति । मूल गाथाओं का अनुसरण करके आचार्य ने तीर्थंकरों, गणधरों और स्थविरावली की नामावली दी है। इसके बाद तीन प्रकार की पर्षद का संकेत करके पंच ज्ञान का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उसके संक्षिप्त दो भेद करते हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । केवलज्ञान की चर्चा में चूर्णिकार ने पन्द्रह प्रकार के सिद्धों का वर्णन किया है - १ ) तीर्थसिद्ध, २) अतीर्थ सिद्ध, ३) तीर्थंकर सिद्ध, ४) अतीर्थंकर सिद्ध, ५) स्वयंबुद्धसिद्ध, ६) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, ७) बुद्धबोधितसिद्ध, ८) स्त्रीलिंगसिद्ध, ९) पुरुषलिंगसिद्ध, १० ) नपुंसक लिंग सिद्ध, ११) स्वलिंगसिद्ध, १२) अन्यलिंगसिद्ध, १३) गृहलिंगसिद्ध, १४) एक सिद्ध और १५) अनेक सिद्ध - ये सब अनन्तर केवलज्ञान के भेद हैं। परम्पर सिद्ध केवलज्ञान के अनेक भेद हैं। केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति के क्रम में तीन मत हैं १) केवलज्ञान व केवल दर्शनयुगपत् ( यौगपद्य), २) दोनों का क्रमिकत्व और ३ ) दोनों का क्रमभावित्वा श्रुतनिश्रित अश्रुतनिश्रित आदि के भेदों से आभिनिबोधिक ज्ञान का विस्तृत वर्णन है। वैसे ही श्रुतज्ञान का भी । यह रतलाम और वाराणसी से प्रकाशित है । ४१ अनुयोगद्वार चूर्णि :- नन्दीचूर्णि के समान ही इसमें भी प्रथम मंगलरूप में पंच ज्ञान का वर्णन है। प्रस्तुत चूर्णि में आवश्यक तंदुल वैचारिक आदि का निर्देश करके दस आनुपूर्वी के विवेचन में कालानुपूर्वी के स्वरूप में पूर्वांगों का परिचय दिया है। सप्त स्वर और नौ रसों का भी सुन्दर वर्णन किया है। आत्मांगुल, उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल, कालप्रमाण, औदारिकादि शरीर, मनुष्यादि प्राणियों का प्रमाण, गर्भज, आदि मनुष्यों की संख्या, ज्ञान, प्रमाण, संख्यात, असंख्यात और अनन्त आदि विभिन्न विषयों पर प्रकाश डाला गया है। ये सभी विषय ध्यान से संबंधित हैं। प्रस्तुत कृति वाराणसी से प्रकाशित है। ४२ आवश्यक चूर्णि :- प्रस्तुत चूर्णि में नियुक्ति का अनुकरण किया गया है। यह मुख्यतः प्राकृत है किन्तु यत्र-तत्र संस्कृतमय गद्यांश व पद्यांश भी हैं। उपोद्घात में भाव मंगल रूप में ज्ञान की विस्तृत चर्चा की गई है। श्रुतज्ञान के अधिकार में आवश्यक पर निक्षेप पद्धति से विचार करते हुये द्रव्य सामायिक और भाव सामायिक का वर्णन किया है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ६५ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy