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________________ ( ३६ ) ध्यान और ध्यान के बिना समता की पूर्णता नहीं होती। ये दोनों एक दूसरे के सहकार में ही विकास को प्राप्त होते हैं, इसलिये ध्यानयोग के साधक को समतायोग की विशेष आवश्यकता है । कारण कि ध्यानयोग में प्राप्त एकाग्रता की स्थिरता समतायोग के अनुष्ठान पर ही अधिक निर्भर है। समतायोगी की आगमों में बड़ी प्रशंसा की है; उसको संसार का पूज्य कहा है; क्योंकि वह राग-द्वेष की विषम भूमिका को उल्लंघन करके वीतरागता की समभूमिका पर आरूढ़ होने का परम सौभाग्य प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त समता-योग निष्पन्न साधक को अनेक प्रकार की लब्धियाँ-सिद्धियाँ-प्राप्त हुई होती हैं, जिनका कि वह अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहे प्रयोग कर सकता है। परन्तु समता का साधक योगी इन प्राप्त सिद्धियों के प्रलोभन में नहीं फंसता, वह इनकी वास्तविकता को समझता है। ये लब्धियां भी कैवल्य-प्राप्ति में विघ्नरूप ही हैं। इसलिए वह इनका उपयोग नहीं करता । तथा समतायोग से सूक्ष्मकर्मों का अर्थात् विशिष्टचारित्र-यथाख्यातचारित्र और केवल-उपयोग को आवृत करने वाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहरूप कर्मों का क्षय और अपेक्षातन्तु (आशारूप डोर) का विच्छेद होता है । अपेक्षातन्तु के विच्छेद का तात्पर्य है कि समतानिष्पन्न योगी को संसार में किसी प्रकार के सुख को प्राप्त करने की अभिलाषा शेष नहीं रहती। इस प्रकार-१. लन्धियों में अप्रवृत्ति, २. सूक्ष्मकर्मों-ज्ञान, दर्शन, और चारित्र के प्रतिबन्धक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहरूप कर्मों का क्षय तथा ३. अपेक्षातन्तु का विच्छेद, ये तीन समतायोग के विशिष्ट फल हैं, जिनके आस्वादन से अमृतत्व की प्राप्ति होती है। ५. वृत्तिसंक्षय-योग-पूर्वोक्त चार योगों के बाद अब पांचवें वृत्ति-संक्षययोग का वर्णन प्राप्त होता है, जिसका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है:-आत्मा में मन और शरीर के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली विकल्परूप तथा चेष्टारूप वत्तियों का अपूनर्भावरूप से जो निरोध-आत्यन्तिक क्षय-समूलनाश-होना उसका नाम वत्तिसंक्षययोग है। यह आत्मा स्वभाव से ही निस्तरंग महान् समुद्र के समान १. "विआणिआ अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसे हिं समो स पुज्जो' । छा०-विज्ञायात्मानमात्मना यो रागद्वषयोः समः स पूज्यः । (दशवै० अ०६/११) २. (क) 'अन्यसंयोगवृत्तीनां, यो निरोधस्तथा तथा । अपुनर्भावरूपेण स तु तत्संक्षयो मतः ॥ (योगबिन्दु, ३६६) वृत्ति-'इह स्वभावत एव निस्तरंगमहोदधिकल्पस्यात्मनो विकल्परूपाः परिस्पन्दनरूपाश्च वृत्तयः सर्वा अन्यसंयोगनिमित्ता एव । तत्र विकल्परूपास्तथाविधमनोद्रव्य संयोगात्, परिस्पन्दनरूपाश्च शरीरादिति । ततोऽन्यसंयोगे या वृत्तयः तासां यो निरोधः तथा तथा-केवलज्ञानलाभकालेऽयोगिकेवलिकाले च । अपुनर्भावरूपेणपुनर्भवनपरिहारस्वरूपेण । स तु-स पुन: तत्संक्षयो वृत्तिसंक्षयो मत इति ।' (पृ० ६३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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