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________________ तीर्थकर या जिन मूतियां मात्र ब्रह्मचर्य को जोड़कर पंचमहाव्रतों का उपदेश दिया था । स्वयं महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म के अनुयायी थे। वाराणसी के महाराज अश्वसेन उनके पिता और वामा (या वामला) उनकी माता थीं। पार्श्वनाथ का लांछन सर्प है और उनके यक्ष-यक्षी पावं (या धरण) और पद्मावती हैं। मतियों में यद्यपि पीठिका पर सर्प लांछन का अंकन नहीं हुआ है, किन्तु पार्श्वनाथ के सिर के ऊपर ३ या ७ सपंफणों का छत्र दिखाया गया है और सर्पफणों के छत्र के आधार पर ही मूर्तियों में पार्श्वनाथ की पहचान की गई है। जैन ग्रन्थों में पाश्वनाथ के सिर पर तीन, सात या ११ सर्पफणों का विधान मिलता है । अधिकांश उदाहरणों में पार्श्वनाथ के सिर पर सात सर्पफणों का छत्र दिखाया गया है जिसकी परम्परा ई० पू० में ही प्रारम्भ हो गयी थी। जैन परम्परा के अनुसार पार्श्वनाथ को तपस्या में उनके पूर्वजन्म के वैरी मेघमाली नाम के असुर ने तरह-तरह के उपसर्ग उपस्थित किए थे जिनका उद्देश्य तपस्या भंग करना था। अन्त में उसने भयंकर वृष्टि द्वारा पार्श्वनाथ की पूरी तरह जल में डुबो देना चाहा। ऐसे ही क्षणों में पद्मावती एवं वैरोट्या जैसी नाग देवियों के साथ नागराज धरणेन्द्र पार्श्वनाथ के समक्ष उपस्थित हुए। धरणेन्द्र ने पार्श्वनाथ के चरणों के नीचे दोर्धनाल युक्त पद्म की रचना कर उन्हें अपनी कुण्डलियों पर उठा लिया और साथ ही उनके सम्पूर्ण शरीर को ढंककर उनके सिर के ऊपर सात सपंफणों का छत्र फैला दिया । पद्मावती ने एक लम्वे वज्रमय छत्र द्वारा शीर्ष भाग में छाया की जिसका छत्र भाग सर्पफणों के ऊपर प्रदर्शित हुआ ।' उपर्युक्त परंपरा के कारण ही पार्श्वनाथ की मूर्तियों में सिर पर सात सपंफणों का छत्र और दोनों और सर्पफणों वाले धरणेन्द्र और पद्मावती की आकृतियां बनों । मूर्तियों में पद्मावती के हाथों में सामान्यतः एक लंबा छत्र दिखाया गया है । दोनों पाश्र्यों में धरणेन्द्र-पद्मावती की उपर्युक्त मूर्तियों के कारण हो सिंहासन छोरों पर अधिकांशतः उनका अंकन नहीं हुआ है । दिगम्बर ग्रंथों में धरणेन्द्र यक्ष चतुर्भुज और सर्पफणों के छत्र सहित निरूपित हैं । यक्ष का वाहन कूर्म है और उनके दो हाथों में सर्प तथा अन्य में नागपाश एवं वरदमुद्रा है ।२ ग्रंथों में पद्म (या कुक्कुटसर्प) वाहना पद्मावती के चतुर्भुज, षड्भुज एवं चतुर्विशतिभुज रूपों का ध्यान किया गया है और उसके हाथों में मुख्यतः पाश, अंकुश, पद्म, आदि के प्रदर्शन का विधान किया गया है।' खजुराहो में पार्श्वनाथ की लगभग २० मूर्तियां है जिनमें से केवल ११ ही अध्ययन की दृष्टि से पूर्णतः सुरक्षित हैं। इस मूर्ति संख्या में अन्य जिनों के साथ उत्कीर्ण पार्श्वनाथ की मूर्तियां नहीं सम्मिलित हैं । खजुराहो में ऋषभनाथ के बाद पार्श्वनाथ की ही सर्वाधिक मूर्तियां बनीं । ये मूर्तियां १०वीं-१२वीं शती ई० के मध्य की है। अधिकांश उदाहरणों में पार्श्वनाथ को कायोत्सर्ग-मुद्रा में दिखलाया गया है। खजुराहो की सभी मूर्तियां सात सर्पफणों के छत्र १. त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र, गायकवाड़ ओरियन्टल सिरीज १३९, बड़ौदा, १९६२ खण्ड-५, पृ० ३९४-९६, पार्श्वनाथ चरित्र ६.१९२-९३; उत्तरपुराण ७३.१३१-४० । २. प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१५१, प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.६७, प्रतिष्ठातिलकम् ७.२३ । ३. प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.६७-७१, प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१७४, प्रतिष्ठातिलकम् ७.२३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002076
Book TitleKhajuraho ka Jain Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherSahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
Publication Year1987
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Art, & Statue
File Size10 MB
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