SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थकर या जिन मूर्तियां ललितमुद्रा में आसीन हैं। कुछ उदाहरणों में यक्ष-यक्षी का अंकन नहीं भी हुआ है । ऐसी मूर्तियों में सिंहासन छोरों पर यक्ष-यक्षियों के स्थान पर दो लघु जिन आकृतियां बनी हैं । खजुराहो में ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदन, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, पुष्पदंत, सुपाश्वनाथ, चंद्रप्रभ, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर को हो सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। पार्श्वनाथ और महावीर की अपेक्षा ऋषभनाथ की अधिक मूर्तियां है । यह संख्या ऋषभनाथ की सर्वाधिक लोकप्रियता का सूचक है। खजुराहो के तीनों प्रमुख जैन मंदिरों (पार्श्वनाथ, घण्टई एवं आदिनाथ) का ऋषभनाथ को समर्पित रहा होना भी इसी तथ्य को प्रकट करता है । अभिनंदन, सुमतिनाथ, पुष्पदंत, पद्मप्रभ, चंद्रप्रभ, कुंथुनाथ एवं मुनिसुव्रत की केवल एक-एक मूर्ति मिली है। अन्य तीर्थंकरों की दो से छः मूर्तियां हैं । स्वतंत्र जिन मूतियाँ खजुराहो की तीर्थंकर मूतियों के सामान्य निरूपण के बाद उनका व्यक्तिशः विवेचन भी आवश्यक है । स्वतंत्र जिन मूर्तियों के पश्चात् खजुराहो को द्वितीयार्थी, त्रितीर्थी और चौमुखी मूर्तियों तथा जिनों के जीवन की घटनाओं से संबन्धित अंकन का उल्लेख किया जायगा । खजुराहो की जिन मूर्तियां अधिकांशतः पीले रंग के बलुए पत्थर में और कुछ उदाहरणों में लाल और भूरे रंग के पत्थरों में बनी है । ऋषभनाथ ऋषभनाथ मानव समाज के आदि व्यवस्थापक एवं वर्तमान अवसर्पिणी युग के प्रथम तीर्थंकर हैं । प्रथम जिन होने के कारण ही इन्हें आदिनाथ भी कहा गया है। इनका लांछन वृषभ है और यक्ष-यक्षी गोमुख और चक्रेश्वरी (अप्रतिचक्रा) है । खजुराहो में ऋषभनाथ की सर्वाधिक (ल० ६०) मूर्तियां हैं । ये मूर्तियां ल० ९५० से ११५० ई० के मध्य की हैं । खजुराहो से मिली ऋषभनाथ की ल० ११वीं शती ई० की एक मूति भारत कला-भवन, वाराणसी (क्रमांक २२०७३) में भी सुरक्षित है। देवगढ़ के अतिरिक्त इतनी विशाल संख्या में ऋषभनाथ की मूर्तियां अन्य किसी स्थल पर नहीं बनीं । खजुराहो की मूर्तियों में ऋषभनाथ के साथ लटकती हुई जटाओं और लांछन के रूप में वृषभ का नियमित अंकन हुआ है । सर्वाधिक विस्तृत लक्षणों वाली भूति पार्श्वनाथ मंदिर के गर्भगृह में है । यद्यपि इस उदाहरण में मूलनायक की प्रतिमा पूरी तरह नष्ट हो चुकी है किन्तु पीठिका और परिकर सुरक्षित हैं । ऋषभनाथ के पाश्वों में कभी-कभी पांच और सात सर्पफणों के छत्र वाले सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग मूर्तियां भी बनी हैं । कभी-कभी दोनों पावों में पार्श्वनाथ की ही आकृतियां बनीं है। ऐसे उदाहरणों में पार्श्ववर्ती चामर-धर सेवकों को कभी-कभी स्थानाभाव के कारण नहीं दिखाया गया है । जाडिन संग्रहालय (क्रमांक १६९१) की एक विशिष्ट मूर्ति में ऋषभनाथ के पारंपरिक यक्ष-यक्षी (गोमुख-चक्रेश्वरी) के साथ ही लक्ष्मी एवं अंबिका की भी आकृतियां उत्कीर्ण हैं, जो ऋषभनाथ की विशेष प्रतिष्ठा की परिचायक हैं। उल्लेखनीय है कि देवगढ़ (मंदिर-४, ११वीं शती ई०) और उरई (जालौन, राज्य संग्रहालय, लखनऊ, क्रमांक १६ ० १७८) की ऋषभनाथ की दो अन्य मूर्तियों में भी गोमुख और चक्रेश्वरी के साथ अंबिका और लक्ष्मी की आकृतियां बनी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002076
Book TitleKhajuraho ka Jain Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherSahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
Publication Year1987
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Art, & Statue
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy