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________________ जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन १५१ वणिक से मनचाही वस्तुएं लेकर ही उस प्रतिमा को उसके सामने ले आये । इस घटना से वणिक दुःखी हुआ और अधिष्ठायकदेव से आदेश प्राप्त कर उसने प्रतिमा के अंगों को जोड़कर उन पर चंदन विलेपित कर दिया, जिससे वह पहलेके समान हो गयी । इससे संतुष्ट होकर उस श्रावक ने मेव लोगों को उनकी मनोवांछित वस्तुएं प्रदान किया और जिन-प्रतिमा को वहीं पीपल के वृक्ष के नीचे वेदी बनवाकर स्थापित कर दी । अभयकीर्ति भानुकीर्ति आदि मठाधीश उस प्रतिमा की देख. रेख करने लगे। एकबार प्राग्वाटवंशीय किसी हालाशाह नामक एक निःसन्तान व्यक्ति ने पुत्र उत्पन्न होने के लिये यहां कामना की, जिसके पूर्ण होने पर उसने यहाँ एक ऊंचे शिखर वाला जिनालय बनवाया । महणिया नामक एक मेव ने यहाँ जिनदेव के सम्मुख अपनी उंगली काट कर अर्पित कर दिया, परन्तु उसकी उंगली पुनः नई हो गयी। इन चमत्कारों को सुनकर मालवाधिपति जयसिंह ने यहां आकर जिनालय में पूजा-अर्चना की और जिनालय के व्यय हेतु २० हल भूमि तथा उस जिनालय की देखरेख करने वालों को १२ हल भूमि प्रदान की।" मंगलपुर स्थित अभिनन्दनदेव के जिनालय और उसे म्लेच्छों द्वारा भंग किये जाने का उल्लेख मदनकोति' ( १२वीं-१३वौं शती ) निर्वाणकाण्ड-( १३वीं शती ई० सन् ); उदयकीति ( १२वीं-१३वीं ई० सन्) और गुणकोति' (१५ वीं शती ई०) ने भी किया है। इस १. श्रीमन्मालवदेशमंगलपूरे म्लेच्छ: प्रतापागतः । भग्ना मूर्तिरथो भियोजितशिराः संपूर्णतामाययो । यस्योपद्रवनाशिनः कलियुगे नेकप्रभावैर्युतः । स श्रीमानभिनन्दनः स्थिरयते दिग्वाससौ शासनम् ।।३४।। मदनकीर्ति-शासनचतस्त्रिशिका २. पासं तह अहिणंदण गायदह मंगलाउरे वंदे ।। ... ... ... ... ... . .. ... . ॥१॥ निर्वाणकाण्ड-अतिशयक्षेत्रकाण्ड ३. मालवद्र संति वंदउं भक्ति विससेणराय कडिउ णिरुत्त । मंगलउरि वंदउं जगि पयास । अहिणदणु अइसयगुणणिवास ॥७॥ उदयकीर्तिकृत तीर्थवन्दना( तीर्थवन्दनासंग्रह पृ० ३९ )। ४. जोहरापुरकर, विद्याधर-पूर्वोक्त, पृ० १६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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