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________________ सदस्यों की अनुमति हो-- सभी भिक्षा देने के अधिकारी हों, जो संघ द्वारा बहुसम्मत हो-सेवाशीलता, शालीनता तथा धर्म-भावना की वृत्ति के कारण जिस कुल का संघ में बहुमान हो।' पारंपरिक संस्कारों का मनुष्य-जीवन पर बहत प्रभाव होता है। पारिवारिक और पैतक संस्कार मानव के हृदय में कुछ ऐसी धारणाएँ और मान्यताएँ प्रतिष्ठित कर देते हैं कि वह सहसा हीन पथ का अवलम्बन नहीं कर पाता। उसमें सहज ही धीरज, दृढ़ता, स्थिरता और उदात्तता प्रादि कुछ ऐसी विशेषताएँ होती हैं, जिनके कारण संघ का गुरुतर उत्तरदायित्व वह वहन कर सकता है। अपनी पैतक प्रतिष्ठा, सम्मान और गरिमा भी उसके मस्तिष्क में रहती है, जो उसे किसी भी महान कार्य में साहस और निर्भीक भाव से जुट जाने को प्रेरित करती है। यही कारण है, यहाँ कुल की महत्ता पर इतना जोर दिया गया है। उक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि कुल के जो विशेषण ऊपर दिये गये हैं, उनका सीधा सम्बन्ध श्रमण संघ से है । जिस कुल से श्रमण संघ का इतना नकट्य है, जिसके बच्चे-बच्चे के हृदय में श्रमणों के प्रति अगाध श्रद्धा है, परिवार का प्रत्येक सदस्य श्रमणों को भक्ति और आदर के साथ सदा दान देने को तत्पर रहता है, वहाँ एक दो का अपवाद हो सकता है, पर उस में उत्पन्न व्यक्ति सहज ही संघीय दायित्वों के प्रति बहुत जागरूक होगा। परंपरा और संस्कार के कारण उसे लगभग वह सब प्राप्त होता है, जो काफी समय पूर्व दीक्षित साधु को होता है। ___ यह विशेष परिस्थिति भी, कभी-कभी तब बनती है, जब अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करने का अवसर पाये बिना ही आचार्य अचानक काल धर्म को प्राप्त हो जाते हैं। अनुमान किया जाता है कि वीर नि० सं० १ से प्राचार्य देवद्धि क्षमाश्रमण के समय तक की १००० वर्ष की अवधि में प्राचार्य परम्परा की तरह उपाध्याय, प्रवर्तक स्थविर, गरणी, गणधर गरगावच्छेदक, महत्तरा, प्रतिनी प्रादि पदों की भी क्रमबद्ध परम्पराएँ चली हों। अनेक परम उपकारी महान श्रमणों ने अपने अपने समय में श्रमण परम्परा के इन विशिष्ट उत्तरदायित्व पूर्ण पदों का कार्यभार सम्हाला। उन्होंने जीवन भर स्व-पर-कल्याण में निरत रहते हुए बड़ी लगन और योग्यता के साथ भगवान महावीर के सर्वभूत हितकारी धर्मसंघ की चहुंमुखी प्रगति की। हमारी उत्कट अभिलाषा थी कि प्राचार्य परम्परा की तरह उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक, महत्तरा आदि सभी परम्परामों का क्रमबद्ध इतिहास दिया जाय। पर यथाशक्ति पूरी खोज और प्राप्त पुरातन सामग्री के पर्यवेक्षण के पश्चात् हमें बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हम प्रस्तुत ग्रन्थ में उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि पदों को अतीत में विभूषित करने वाले महापुरुषों का परिचय नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि उनका नाम काल आदि साधारण परिचय ' व्यवहार सूत्र, उद्देशक ३, मूत्र ८ ( ७८ ) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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