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________________ इस प्रकार के जीवन के धनी श्रमणों की अपनी गरिमा है । वे दृढ़धर्मा होते हैं और संघ के श्रमणों को धर्म में, साधना में, संयम में स्थिर बनाये रखने के लिए सदैव जागरूक तथा प्रयत्नशील रहते हैं। प्रवचनसारोद्धार (द्वार २) में कहा गया है - "प्रवर्तितव्यापारान् संयम योगेषु सीदतः साधून ज्ञानादिषु ऐहिकामुष्मिकापायदर्शनत: स्थिरीकरोतीति स्थविरः।" जो साधु लौकिक एषणावश सांसारिक कार्य-कलापों में प्रवृत्त होने लगते हैं, जो संयम-पालन में, ज्ञानानुशीलन में कष्ट का अनुभव करते हैं, ऐहिक और पारलौकिक हानि या दुःख दिखला कर उन्हें जो श्रमण-जीवन में स्थिर करते हैं, उन्हें स्थविर कहते हैं। वे स्वयं उज्ज्वल चारित्र्य के धनी होते हैं, अतः उनके प्रेरणा-वचन, प्रयत्न प्रायः निष्फल नहीं होते। स्थविर की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्थविर संविग्न - मोक्ष के अभिलाषी, मार्दवित, - अत्यन्त मृदु या कोमल प्रकृति के धनी और धर्मप्रिय होते हैं। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रय की प्राराधना में उपादेय अनुष्ठानों को जो श्रमण परिहीन करता है, उनके पालन में अस्थिर बनता है, वे (स्थविर) उसे ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की याद दिलाते हैं। पतनोन्मुख श्रमणों को वे ऐहिक और पारलौकिक अध: पतन दिखला कर मोक्ष के मार्ग में स्थिर करते हैं।' इसी प्राशय को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है - तेन व्यापारितेष्वर्थे - स्वनगारांश्च सीदतः । स्थिरीकरोति सच्छक्तिः, स्थविरो भवतीह सः ।। सप संयम, ताराधना तथा आत्मसाधना आदि श्रमण-जीवन के उन्नायक कार्य जो संघ-प्रवर्तक द्वारा श्रमणों के लिए नियोजित किये जाते हैं, उन में जो श्रमण अस्थिर हो जाते हैं, इनका अनुसरण करने में जो कष्ट मानते हैं या इनका पालन करना जिनको अप्रिय लगता है, भाता नहीं, उन्हें जो प्रात्म-शक्ति-सम्पन्न दृढ़चेता श्रमरण उक्त अनुष्ठेय कार्यों में दृढ़ बनाता है, वह स्थविर कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि संयम-जीवन जो श्रामण्य का अपरिहार्य अंग है, के प्रहरी का महनीय कार्य स्थविर करते हैं। संघ में उनकी बहुत प्रतिष्ठा तथा साख होती ' संविग्गो मद्दविभो, पियधम्मो नागदंसरणचरित्ते। जे अट्ठ परिहायइ, सावेतो ते हवई थेरो ।। यः संविग्नो मोक्षाभिलाषी, मादवितः संज्ञातमादंविकः । (१) प्रियधर्मा एकान्तवल्लभः, संयमानुष्ठाने यो ज्ञानदर्शन चारित्रेषु मध्ये यानर्यानुपादेयानुष्ठानविशेषान् परिहापयति हानि नयति तान् तं स्मारयन् भवति स्थविरः, सीदमानान्साधून ऐहिकामुष्मिकापायप्रदर्शनतो मोक्ष-मार्गे स्थिरी करोतीति स्थविर इति व्युत्पत्तेः । धर्मसंग्रह, अधिकार ३, गाथा ७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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