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________________ कालान्तर में ज्यों-ज्यों काल-प्रभाव से प्राचार्यों के अपने पवित्र उत्तर. दायित्वों का न्याय एवं सच्चाई पूर्वक निर्वहन करने में शैथिल्य पाने लगा, पुनीत कर्तव्य की भावना शनैः शनैः विलुप्त होने लगी, धर्म संघ के हितार्थ दिये गये अधिकारों का उपयोग केवल अपनी महानता और स्वामित्व को प्रदर्शित करने मात्र के लिये किया जाने लगा, त्यों-त्यों अनुशासन शिथिल तथा धर्म संघ विकीर्ण एवं क्षीण होता गया । पर सोभाग्य से समय-समय पर अनेक महान विभूतियां उन दुदिनों में उभर कर आगे आईं। उन्होंने घोरातिघोर कष्ट सह कर भी अनेक बार क्रियोद्धार किये। उन महान् आत्माओं के त्याग का ही फल है कि अनेक परिवर्तनों के उपरान्त भी प्राज भगवान महावीर का धर्म संघ अपने मूल स्वरूप को अपरिवर्तित एवं अक्षुण्ण बनाये हुए है। उत्तरवर्ती काल में श्रमण संघ के चतुर्दिक प्रसार, सुदूरस्य प्रदेशों में धर्मप्रचार की दृष्टि से गये हुए श्रमणों द्वारा उन क्षेत्रों में धर्मोद्योत की प्रचुर संभावनाओं के कारण वहीं विहार करते रहने के कारण अथवा कालान्तर में छोटी-बड़ी कतिपय मान्यताओं का भेद उत्पन्न हो जाने के समय प्रभाव से अपना पृथकतः एक गण के रूप में स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रखने की भावना के बलवती बन जाने के फलस्वरूप श्रमरण संघ में क्रमशः अनेक संघ, गण, गच्छ, शाखा, उपशाखा, कुल तथा उपकुल आदि का अस्तित्व बढ़ने लगा और मुख्यतः वे विभिन्न संघ, गण, गच्छ प्रादि अपने अपने स्वतन्त्र प्राचार्य के नेतृत्व में धर्म का प्रचारप्रसार करने लगे। इस प्रकार भगवान महावीर के धर्म संघ में अनेक संघों, गरणों तथा गच्छों के प्रादुर्भाव के कारण एक ही समय में अनेक प्राचार्यों की प्रथा का प्रचलन तो हुप्रा पर उन सभी धर्म संघों, गणों अथवा गच्छों के संचालन की परम्परागत सांकुश एकतन्त्री शासन-प्रणाली यथावत् रही। उत्तरोत्तर अंकुश में शैथिल्य के अतिरिक्त उसके मूल स्वरूप में विशेष परिवर्तन नहीं पाया। प्राज भी जैन धर्म के सभी श्रमण संघों एवं सम्प्रदायों की संचालन व्यवस्था अपने उसी पुरातन स्वरूप सांकुश एकतन्त्री व्यवस्था-प्रणाली को लिये हुए है। निर्वाणोत्तर काल में संघ व्यवस्था का स्वरूप :- यह तो एक निर्विवाद ऐतिहासिक तथ्य है कि भगवान् महावीर का धर्म-संघ भारत के विभिन्न धर्म संघों में सदा से प्रमुख, सुविशाल तथा बहुजन सम्मत रहा है। जैन वाङमय में निर्वाण-पूर्ववर्ती एवं निर्वाणोत्तरकाल के अनेक ऐसे अन्य धर्मसंघों का उल्लेख उपलब्ध होता है जो विशाल भी थे और बहुजन सम्मत भी। पर ग्राज उन धर्म संघों में से एक दो को छोड़कर शेष का नाम के अतिरिक्त कोई अवशेष तक भी अवशिष्ट नहीं रहा है। इसके विपरीत भगवान् महावीर का धर्म संघ जिस प्रकार प्रभु महावीर के निर्वाण से पूर्व एक विशाल, वहजन सम्मत एवं सुप्रतिष्ठित धर्म संघ के रूप में समीचीन रूप से चलता रहा, उसी प्रकार निर्वाणोत्तर काल में भी चलता रहा । निर्वाणोत्तर काल के १००० वर्ष के इतिहास का विहंगमावलोकन करने पर तो यह विश्वास करने के लिये अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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