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________________ और छोटे के भेद का केवल कहने भर के लिए स्थान न रहने के कारण प्रत्येक व्यक्ति में सबसे आगे उभरने की, अहमिन्द्र अथवा अधिनायक बनने की प्रतिस्पर्धा प्रबल वेग से जागत रहती है। प्रत्येक व्यक्ति में उत्पन्न हुई इस प्रकार की भावना के परिणामस्वरूप संगठन में सांठ-गांठ, जोड़-तोड़, दलबन्दी, अनुशासनहीनता, और कलह आदि विनाशकारी प्रवृत्तियां पनपने लगती हैं। इस प्रकार शनैः-शनैः सामूहिक अपनत्व की भावना अधिनायकत्व, अहमिन्द्रत्व का रूप ग्रहण कर लेती है। एक डोर में चलने वाले एक सम्पन्न-समृद्ध घर के सभी सदस्यों में अपनत्व के स्थान पर अहम्मन्यता और अधिनायकत्व की भावना के पनपने पर जो उस घर की दुर्दशा होती है, ठीक वही दशा अन्ततोगत्वा प्रजातान्त्रिक प्रणाली से चलने वाले संगठन की होती है। यों तो सभी स्थितियां सापवाद होती हैं। पर जहां तक धार्मिक संघ का प्रश्न है, कम से कम इसके संचालन में तो एकांतिक प्रजातन्त्रीय प्रणाली न फव सकती है और न चिरकाल तक सफल ही सिद्ध हो सकती है। प्रारम्भिक दशा में भले ही उससे कुछ लाभ दृष्टिगोचर हो पर उसमें चिरकालिक स्थैर्य नहीं आ पाता। परिवर्तन पर परिवर्तन आते हैं। उस संघ का वास्तविक स्वरूप बदलते-बदलते मूल स्वरूप से पूर्णतः भिन्न हो जाता है। धार्मिक संघ मूलतः आध्यात्मिक शान्ति की प्राप्ति के लिए स्थापित किये जाते हैं पर उनके एकान्ततः प्रजातान्त्रिक प्रणाली से संचालित किये जाने के परिणामस्वरूप उस संघ के अधिकांश सदस्यों में उत्पन्न हई विषाक्त प्रतिस्पर्धा के कारण प्राध्यात्मिक शान्ति तो दूर भौतिक शान्ति भी नहीं रह पाती। उस धर्म संघ की स्थापना के पीछे जो आध्यात्मिक शांति की अवाप्ति का मूल उद्देश्य रहता है, वह तिरोहित हो जाता है। इस प्रकार 'नष्टे मूले कुतो शाखा' की उक्ति के अनुसार वह संघ निष्प्राण हो जाता है । एकतन्त्री व्यवस्था-प्रणाली में भी अंकुश के प्रभाव तथा सर्वाधिक सुयोग्य व्यक्ति को अधिनायक न बना उसके स्थान पर अयोग्य व्यक्ति के मनोनयन के भी बड़े भीषण परिणाम होते हैं। बौद्ध संघ का दृष्टान्त हमारे समक्ष है । बौद्धसंघ की व्यवस्था किस प्रणाली पर आधारित थी, इसका यद्यपि कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता तथापि पाली-पिटकों के उल्लेखानुसार लिच्छवियों के बौद्ध संघ की ओर अधिक झकाव से यह अनुमान किया जाता है कि प्रारम्भिक काल में बौद्ध संघ की संचालन प्रणाली एकतन्त्री प्रणाली के आधार पर न की जाकर कतिपय परिवर्तनों के साथ गणतन्त्र प्रणाली के अनुरूप प्रजातान्त्रिक आधार पर की गई थी। यह भी एक कारण हो सकता है कि गणतान्त्रिक व्यवस्था के अभ्यस्त, शासक और शासित, अधिनायक और अधीनस्थ आदि के बड़े-छोटे के भेद के अनभ्यस्त लिच्छवियों का प्रारम्भ में बौद्ध संघ की ओर अपेक्षाकृत अधिक झुकाव रहा हो। पर बौद्ध संघ में वज्जिपूत्रक संघ के नाम से एक पृथक संघ की स्थापना से यह प्रकट होता है कि प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप बौद्धसंध में उत्पन्न हुई अनुशासनहीनता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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