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________________ सामन्तों, श्रेष्ठियों एवं सभी वर्गों के श्रावकों तथा श्राविकाओं ने जैनधर्म के प्रचारप्रसार के साथ-साथ इसके दिगदिगन्त पापी प्रताप को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए जो-जो महत्वपूर्ण कार्य किये, उन सबका क्रमबद्ध पूर्ण विवरण प्राज जैन वाङ्मय में उपलब्ध नहीं है। फिर भी उनमें से कतिपय कार्यों का शिलालेखों, प्रायागपट्टों, ताम्रपत्राभिलेखों आदि में उकित विवरण प्राज भी उपलब्ध होता हैं, जिनका प्रस्तुत ग्रन्थ में उल्लेख किया गया है। प्राक्कथन में भी यथास्थान इस पर और अधिक प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। कार्य को गुरुता एवं दुस्साध्यता- इतने सुदीर्घ अतीत के सुविस्तृत इतिहास का यथावत् निरूपण तो वस्तुत: केवल अतिशयज्ञानी ही कर सकते हैं। क्योंकि उनमें से विभिन्न गणों के जिन गणाचायों, प्रभावक महाश्रमणों ने जीवन भर सुदूर दक्षिण के तमिलनाडु, बंग, कलिंग, आन्ध्र आदि प्रदेशों में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया, उनमें से अधिकांश के तो नाम तक भी आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं। कल्पस्थविरावली में प्रार्य सुहस्ती के पश्चात् जिन प्राचार्यों के नाम दिये गये हैं, उनमें से अधिकांश का नाम के अतिरिक्त किंचित्मात्र भी परिचय आज के उपलब्ध जैन वाङमय में दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी प्रकार नन्दीसूत्र के आदि में दी गई वाचनाचार्यों की स्थविरावली के भी कतिपय आचार्यों का कोई परिचय कहीं उपलब्ध नहीं होता। जब मुख्य-मुख्य प्राचार्यों का भी पूरा परिचय उपलब्ध नहीं होता तो उस दशा में उनके समय में घटित घटनाओं का शृंखलाबद्ध निरूपण करना कितना कठिन कार्य है, इसका विज्ञ स्वयं सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। यह स्थिति वर्तमान समय में ही हो, ऐसी बात नहीं है। प्राज से अनेक शताब्दियों पहले भी कुछ इसी प्रकार की स्थिति को विद्यमानता के उल्लेख जैन साहित्य में उपलब्ध होते हैं। इतिहासलेखन का कार्य कितना जटिल है, इस सम्बन्ध में आज से लगभग ७०० वर्ष पूर्व हुए प्राचार्य प्रभाचन्द्र (वि० सं० १३३४) द्वारा प्रकट किए गए निम्नलिखित उद्गारों से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है : श्रीवज्रानुप्रवृत्त (तो) प्रकटमुनिपति प्रष्ठवृत्तानितत्तद्, ग्रन्थेभ्यः कानिचिच्च श्रतधरमुखत: कानिचित्संकलय्य । दुष्प्रापत्वादमीषां विशकलिततयैकत्रचित्रावदातं, जिज्ञासैकाग्रहाणामधिगतविधयेऽभ्युच्चयं स प्रतेने ।' अर्थात् - आर्य वज्र और उनके अनुवर्ती प्राचार्यों का इतिवृत्त खण्डविखण्डित रूप में इतस्ततः बिखरा हुप्रा एवं अपूर्ण होने के कारण एक प्रकार से दुष्प्राप्य था । अतः उनमें से कतिपय प्राचार्यों का इतिवृत्त अनेक ग्रन्थों के परिशीलन से, कुछ प्राचार्यों का श्रतधरों से सुनकर और कइयों का (जैन वाङमय में से) संकलित कर मैंने (प्रभाचन्द्र ने) उसे सम्यकरूपेण सुव्यवस्थित किया है । प्राचार्य प्रभाचन्द ने "प्रभावक चरित्र' नामक अपने अत्यन्त महत्वपूर्ण ' प्रभावक चरित्र, ग्रन्थकारकृता स्वकीया प्रशस्तिः, पृष्ठ २१५, श्लोक १७ ( ३७ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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