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________________ वररुचि का षड्यन्त्र] दशपूर्वधर-काल : आर्य स्थूलभद्र से जन-जन में प्रसृत वह श्लोक राजा नन्द के पास पहुंचा । नन्द चौंक पड़ा। उसने मन ही मन शकटार के व्यक्तित्व के साथ अपने व्यक्तित्व की तुलना की । उमे अनुभव हगा कि शकटार वस्तुतः सारे साम्राज्य पर छाया हया है। शकटार का प्रभाव, प्रताप, वर्चस्व और सभी कुछ अपनी तुलना में नन्द को विराट, सर्वतोमुखी एवं सर्वव्यापी प्रतीत होने लगा। उसने सोचा सामूहिक स्वरों में प्रकट हई बात निश्चित रूप से सत्य ही होगी। इसके अतिरिक्त श्लोक द्वारा इंगित कार्य शकटार के लिये दुस्साध्य नहीं । नन्द की विचारधारा ने नया मोड़ लिया। शकटार द्वारा अतीत में राजा और राज्य दोनों के हित में किये गये स्वामिभक्ति के अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्यों का विहंगमावलोकन करते हुए नन्द को दृढ़ विश्वास हो गया कि शकटार किसी भी दशा में उस प्रकार का घृणित कार्य नहीं कर सकता। __ "प्रत्येक परिस्थिति में वस्तुस्थिति से अवगत हो जाना तो सर्वथा हितप्रद है" इस विचार के अन्तर्मन में उद्भूत होते ही नन्द ने अपने एक विश्वासपात्र व्यक्ति को महामात्य के निवासस्थान पर किये जा रहे कार्यों का विस्तृत विवरण प्राप्त करने हेतु प्रादेश दिया । नन्द की आज्ञा को शिरोधार्य कर वह व्यक्ति तत्काल महामात्य शकटार के निवासस्थान पर पहुंचा। उस समय संयोगवश महाराज नन्द को भेंट करने हेतु छत्र, चँवर, खड्ग व नवाविष्कृत शस्त्रास्त्र भण्डार में रखवाये जा रहे थे। नन्द के विश्वासपात्र व्यक्ति ने तत्काल नन्द के पास लौट कर जो कुछ उसने अपनी प्रांखों से देखा था वह सारा विवरण नन्द के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया। नन्द को उक्त श्लोक में किये गये इंगित पर कुछ विश्वास हुआ । पर नन्द बड़ा चतुर नीतिज्ञ था। "कभी-कभी प्रांखों से देखी हुई बात भी असत्य सिद्ध हो सकती है" इस नीतिवाक्य को उसने अपने प्राचरण में ढाल रखा था। उसने सहसा कोई साहसपूर्ण कार्य करना उचित नहीं समझा। राजसेवा में महामात्य के समुपस्थित होने का नियत समय सन्निकट आ रहा था। नन्द उस समय की प्रतीक्षा में अपने सिंहासन पर बैठा रहा । निश्चित समय पर महामात्य शकटार नन्द की सेवा में उपस्थित हमा और उसने राजा को प्रणाम किया। बहुत प्रयास करने पर भी नन्द अपने क्रोध को छुपा नहीं सका और उसने वक्र एवं क्रुद्ध दृष्टि से शकटार की ओर देखते हुए अपना मुख शकटार की ओर से दूसरी ओर मोड़ लिया। प्राण देकर भी परिवार-रक्षा नन्द की तनी हुई भौंहों और वक्रदृष्टि को देख कर शकटार समझ गया कि उसके विरुद्ध किया गया कोई भीषण गुप्त षड्यन्त्र सफल हो चुका है। तत्काल अपने घर लौट कर शकटार ने श्रीयक से कहा- "वत्स ! महाराज नन्द को किसी षड्यन्त्रकारी ने विश्वास दिला दिया है कि अब मैं उनके प्रति स्वामिभक्त नहीं रहा हूं। ऐसी स्थिति में किसी भी समय हमारे समस्त परिवार का सर्वनाश हो सकता है अतः अपने कुल की रक्षार्थ मैं तुम्हे आदेश देता हूं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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