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________________ समवसरण की रचना की। सौधर्मेन्द्र की प्रेरणा से इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति पौर कौण्डिन्य नामक विद्वान् भगवान् के समवसरण में उपस्थित हुए पोर उन्होंने अपने पांच-पांच सौ शिष्यों के साथ दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण की। चेतक की पुत्री चन्दनाकुमारी एक स्वच्छ वस्त्र धारण कर आर्यिकानों में प्रमुख होगई। राजा श्रेणिक भी अपनी चतुरंगिनी सेना के साथ प्रभु के समवसरण में पहुंचा। इन्द्रभूति गौतम गणधर ने प्रभु से तीर्थ की प्रवृत्ति करने हेतु प्रश्न किया।' इस पर वर्षमान जिनेश्वर ने श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल दिव्य ध्वनि के द्वारा शासन की परम्परा चलाने के लिए उपदेश दिया। हरिवंश पुराणकार ने जो यहां उल्लेख किया है कि कैवल्योपलब्धि के अनन्तर ६६ दिन तक भगवान महावीर मौन धारण किये हुए विचरण करते रहे, इस प्रकार का उल्लेख दिगम्बर परम्परा के अन्य किसी ग्रन्थ में दृष्टिगोचर नहीं होता। ऋजुकूला नदी पर जृम्भिका ग्राम के बाहर ज्यों ही भगवान् को केवलनान की प्राप्ति हई तत्काल देव देवेन्द्रों ने वहाँ उपस्थित हो ज्ञान कल्याणक का उत्सव तो किया किन्तु उसी स्थान पर देवों द्वारा समवसरण की रचना क्यों नहीं की गई ? इस सम्बन्ध में तिलोयपण्णत्ती, धवला, जयधवला, हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण प्रादि दिगंबर परम्परा के सर्वमान्य ग्रन्थों के रचयिता मौन हैं । उत्तर पुराणकार ने तो विपुलाचल पर समवसरण की रचना का उल्लेख तक नहीं किया है। इससे यह प्रकट होता है कि आज से लगभग १२०० वर्ष पूर्व तक इस सम्बन्ध में कोई सुनिश्चित एवं सर्वसम्मत मान्यता दिगम्बर परम्परा में प्रचलित नहीं थी कि प्रभु महावीर को कैवल्यलाभ होते ही ऋजकला नदी के तट पर समवसरण की रचना किस कारण नहीं की गई। क्या यह आश्चर्यजनक घटना प्रवर्तमान हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव के कारण घटित हुई अथवा सहज ही ? ___ तिलोय पण्णत्ती में हुण्डावसपिरणी के कुप्रभाव के कारण विस्मयजनक अघटित घटनाओं के घटित होने का विवरण दिया गया है, जिसमें सातवें, तेवीसवें और अंतिम तीर्थंकर के उपसर्ग होने का तो उल्लेख है पर यह नहीं बताया ' वही, श्लोक ६४ - ८६ २ श्रावणस्यासिते पो, नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः । प्रतिमाह पूर्वाह, शासनायेमुदाहरत् ॥६॥ अवसप्पिरिण उस्सपिरिण कालसलाया गदे य संसारिण । हुंडावसप्पिणी सा एक्का, जाएदि तस्स चिहमिमं ॥१६१।। .."चक्कघराउ दिजाणं हवेदि वंसस्स उप्पत्ती ॥१६१८॥ "रणवमादिसोलसंतं सत्तसु तिस्येसु धम्मवोच्छेदो ॥१६१९॥ .."सत्तमतेवीसंतिम तित्पयराणं च उसग्गो ॥१६२०॥ [तिलोयपण्णत्ती, प्रथम भाग, ४ महाधिकार] [वही] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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