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________________ ३५८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्रा० रत्न० के अनुसार है ।' क्योंकि वी० नि० सं० ६५३ में एकादशांगी का विच्छेद हो जाने के अनन्तर इनका उल्लेख दिया है । उपरिवरिणत उल्लेखों पर गम्भीरता से विचार करने के पश्चात् केवल इतिहास का विद्वान् ही नहीं अपितु साधारण विद्यार्थी भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि ये सभी उल्लेख सम्भवतः किंवदन्तियों, दन्तकथाओं और लोककथाओं के आधार पर किये गये हैं । वस्तुतः इनके पीछे कोई ठोस आधार अथवा पुष्ट प्रमारण नहीं है । ऊपर उद्धृत की गई सभी मान्यताओं के निरसन करने वाले अनेक प्रमाण स्वयं दिगम्बर परम्परा में विद्यमान हैं। उनमें से एक प्रबल श्रीर ठोस प्रमाण है पार्श्वनाथ बस्ती का शिलालेख, जिसका अभिलेखनकाल शक संवत् ५२२ तदनुसार विक्रम संवत् ६५७ और वीर निर्वाण संवत् ११२७ है । उस शिलालेख में क्रमशः गौतम, लोहार्य, जम्बू, विष्णु, देव, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु, विशाख, प्रोष्ठिल, कृत्तिकाय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण और बुद्धिल इन १६ आचार्यों के नाम देने के पश्चात् इनकी उत्तरवर्ती श्राचार्यपरम्परा में हुए प्राचार्य भद्रबाहु को निमित्तज्ञ बताते हुए यह उल्लेख किया गया है कि उन भद्रबाहु स्वामी ने अपने निमित्तज्ञान से भावी द्वादशवार्षिक दुष्काल की संघ को सूचना दी। तदनन्तर समस्त संघ ने दक्षिणापथ की ओर प्रस्थान किया। नामसाम्य से हुई भ्रान्ति जिस प्रकार गणधर मंडित और मौर्यपुत्र की माताओं के केवल नामसाम्य के आधार पर कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य, आवश्यकचूरिंणकार आदि अनेक प्राचीन विद्वान् प्राचार्यों ने मौर्यपुत्र को मंडित का लघु सहोदर बता कर यह मान्यता अभिव्यक्त कर दी कि भगवान् महावीर के जन्म से पूर्व भरतक्षेत्र के कतिपय प्रान्तों के उच्चकुलीन ब्राह्मणों तक में विधवाविवाह की प्रथा प्रचलित थी । किसी ने आगमों तथा इतर साहित्य में बार-बार दोहराये गये इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया कि जिन्हें छोटा भाई बताने का प्रयास किया जा रहा है, वह मौर्यपुत्र वस्तुतः मंडित से वय में छोटे नहीं अपितु तेरह वर्ष बड़े थे । ठीक उसी प्रकार वीर नि० सं० १५६ से १७० तक आचार्य पद पर रहे हुए छेदसूत्रकार - चतुर्दशपूर्वघर प्राचार्य भद्रबाहु को और वीर नि० सं० १०३२ (शक सं० ४२७ ) के अासपास विद्यमान वराहमिहिर के सहोदर भद्रबाहु को एक ' प्रायरियो भद्दबाहु, प्रट्ठगमहरिणमित्त जाण्यरो रिगणासह कालवसं, स चरिमो हु रिणमित्तियो होदि ||८०|| - २ $........... [ श्रुतस्कन्ध ] "महावीर सवितरि परिनिवृ ते भगवत्परमर्षि गौतमगरण- घरसाक्षाच्छिष्यलोहार्यजम्बु - विष वापराजित - गोवर्द्धन भद्रबाहु - विशाख प्रोष्ठिल - कृतिकाय - जयनाम - सिद्धार्थ धृतिषेरण - बुद्धिलादि गुरु - परम्परीण वक्र (क) माभ्यागत महा पुरुष संततिसमवद्योर्तितान्वय भद्रबाहुस्वामिना उज्जयन्यामष्टांग महानिमित्ततत्वज्ञेन कात्यदर्शिना निमित्तेन द्वादशसंवत्सरकालवैषम्यमुपालभ्य कथिते सर्व्वसंघ उत्तरापथादक्षिणापथं प्रस्थितः । [ पार्श्वनाथ वस्ति का शिलालेख ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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