SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिथ्यात्व अथवा सास्वादन के धरातल पर पहुंच गया हो, यह बात न बुद्धिसंगत ही प्रतीत होती है और न युक्तिसंगत ही ! इन सब तथ्यों से यही निष्कर्ष निकलता है कि महावल मुनि ने तीर्थकर नामगोत्र-कर्म के उपार्जन से पूर्व ही स्त्रीनामगोत्र-कर्म का उपार्जन कर लिया था । अंतिम पांचजी शंका में यह कहा गया है कि तीन संघाटकों में भिक्षार्थ देवकी के यहां प्राये छः मुनियों का वास्तविक परिचय देवकी को भगवान् श्ररिष्ट नेमि के समवसरण में स्वयं प्रभु से प्राप्त हुआ था । पर प्रथम भाग में 'चउपन्न महापुरिस चरित्र' के उल्लेखानुसार उन छहों मुनियों द्वारा देवकी को अपना पूरा परिचय दिये जाने का उल्लेख किया गया है। साथ ही साथ शास्त्रीय मान्यता को टिप्परण में बताया गया है, क्या उससे शास्त्रीय अभिमत की गौणता प्रकट नहीं होती ? वस्तुस्थिति यह है कि प्रथम भाग में २०३ से २०६ पृष्ठ पर जो अनीकसेन श्रादि ६ मुनियों के सम्बन्ध में विवरण दिया गया है, उसके शीर्षक और उस विवरण को यदि ध्यान पूर्वक ग्राद्योपान्त पढ लिया जाता है तो इस प्रकार की शंका उठाने की आवश्कता ही नहीं रह जाती । इस सारे विवरण का शीर्षक है - "अरिष्टनेमि द्वारा अद्भुत रहस्य का उद्घाटन "" यह शीर्षक ही एतद्विषयक शास्त्रीय मान्यता का स्पष्टतः बोध करा देता है । इसके अतिरिक्त पृष्ठ २०८ के अन्तिम गद्यौघ ( Paragraph ) से पृष्ठ २०६ में इस आख्यान से सम्बन्धित पूरी शास्त्रीय मान्यता का समीचीनतया दिग्दर्शन कराने के साथ साथ इसकी पुष्टि में त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्रकार द्वारा किये गये वर्णन का भी उल्लेख कर दिया गया है। एक तथ्य का प्रतिपादन करने से पूर्व उसके विविध पक्षों को प्रस्तुत करने की परम्परा सदा से स्वस्थ मानी जाती रही है । उसी स्वस्थ परम्परा का ग्रवलम्बन ले कर इस प्रकरगा में 'चउपन्नमहापुरिस चरियं' के रचयिता का पक्ष प्रस्तुत किया गया है, जो परम वैराग्योत्पादक और सरस होने के साथ साथ अधिकांश विज्ञों के लिये भी नवीन है । इस पक्ष को प्रस्तुत करते समय भी इस बात की पूरी सावधानी बरती गई है कि जिन दो स्थलों पर शास्त्रीय मान्यता से भिन्न प्रकार के उल्लेख आये हैं, वहां तथ्य के प्रकाशार्थ शास्त्रीय मान्यता के द्योतक टिप्पर दे दिये गये हैं । इस प्रकार केवल इस प्रकरण में ही नहीं प्रालेख्यमान सम्पूर्ण ग्रन्थमाला में शास्त्रीय उल्लेखों, श्रभिमतों अथवा मान्यताओं को सर्वोपरि प्रामाणिक मानने के साथ साथ आवश्यक स्थलों पर उनकी पुष्टि में अन्य प्रामाणिक आधार एवं न्यायसंगत, बुद्धिसंगत युक्तियां प्रस्तुत की गई हैं । शास्त्रों के प्रति अगाध श्रद्धा अभिव्यक्त करते हुए शास्त्रीय अभिमतों की सर्वोपरि प्रामाणिकता को अक्षुण्ण बनाये रखने की प्रशस्त भावना से प्रेरित Jain Education International ( २६ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy