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________________ तथा तत्त्वार्थाधिगम के स्वोपज्ञ भाष्य के ४ उल्लेखों की यापनीय प्राचार्य शिवार्य द्वारा रचित भगवती आराधना तथा यापनीय आचार्य अपराजित द्वारा रचित भगवती आराधना की विजयोदया टीका में किये गये उल्लेखों से समानता बताते हुए यह संभावना प्रकट की है तत्त्वार्थाधिगम सूत्र एवं इसके स्वोपज्ञ भाष्य के निर्माता वाचक उमास्वाति यापनीय प्राचार्य हो सकते हैं । स्वर्गीय प्रेमीजी की इस संभावना पर विचार करने से पहले इस तथ्य को ध्यान में रखना सब विद्वानों के लिये आवश्यक हो जाता है कि वीर निर्वाण सम्वत् २९१ में प्रार्य सुहस्ती के स्वर्गस्थ होने के कुछ ही वर्षों के पश्चात् उनके पट्टधर शिष्य गणाचार्य प्रार्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध से कोटिक गण और उच्चनागरी शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। यह श्वेताम्बर-दिगम्बर भेद से ३०० वर्ष से भी पूर्व की घटना है। मथुरा के कंकाली टीले से निकले कुषाणकालीन १० शिलालेखों में उच्चनागरी शाखा का उल्लेख है । ये लेख कनिष्क सं०५ से १८ (शालिवाहन शाक संवत्सर ५ से१८) अर्थात् वीर निर्वाण सम्वत् ६१० से ७०३ तक के हैं।' इन १० शिलालेखों में से लेख सं० १६, २०, २२, २३, ३१, और ३५ इन ७ लेखों में स्पष्टतः कोटिक गण ब्रह्मदासिक कुल और उच्चनागरी शाखा का, लेख सं० ३६ और ६४ में केवल उच्चनागरी शाखा का तथा लेख सं० ७० में कोटिक गरण उच्चनागरी शाखा का उल्लेख है। इन शिलालेखों से कल्पसूत्रीया स्थविरावली की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता सिद्ध होती है। वाचक उमास्वाति ने स्वोपज्ञ भाष्य सहित तत्त्वार्थाधिगम सूत्र की रचना के समय उसकी प्रशस्ति में स्पष्टतः अपना परिचय एकादशांगविद् गुरु के शिष्य तथा उच्चनागर शाखा के वाचक के रूप में देते हुए यह स्वीकार किया है कि गुरु परम्परा से प्रागत तीर्थंकर महावीर (अर्हत्) की वाणी को हृदयंगम कर इस शास्त्र की रचना की। इससे यही सिद्ध होता है कि वे कल्पस्थविरावली में वर्णित उच्चनागरी शाखा के अर्थात् प्रभु की मूल श्रमण परम्परा के वाचनाचार्य थे। वाचनाभेद, गुरुपरम्परागत पाठभेद, स्मृतिदोष, लिपिदोष आदि अनेक कारणों से कुछ छोटे-बड़े मान्यता भेद संभव हैं। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र का श्वेताम्बर परम्परा द्वारा सम्मत एकादशांगी से कितना साम्य एवं सामीप्य है तथा एकादशांगी के किन-किन स्थलों से किस-किस सूत्र को लेकर तत्त्वार्थाधिगम के सूत्रों की रचना की गई है, इस पर स्वर्गीय प्राचार्य, आत्मारामजी महाराज, प्राचार्य घासीलालजी म. प्रादि विशद प्रकाश डाल चुके हैं। तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का एकादशांगी के विभिन्न प्राकृत सूत्रों से साम्य भी इस अनुमान को बल देता है कि उमास्वाति महावीर स्वामी की मूल श्रमण परम्परा के ही प्राचार्य थे। न साहित्य और इतिहास (श्री नाथूराम प्रेमी), पृ. ५३४ से ५४० २जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ५३३ . . जैन शिला लेख संग्रह भाग २, पृ. १८-४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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