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________________ पुष्ट किया गया। दूसरा लाभ यह हुआ कि इतिहास की अनेक जटिल गुत्थियों को सुलझाने, अनेक भ्रान्त धारणाओं के निराकरण, विवादास्पद विषयों का निर्णयात्मक निष्कर्ष निकालने तथा अनेक स्थलों पर - इतिहास की टूटी कड़ियों के संधान में इस तुलनात्मक अध्ययन से बड़ी सहायता मिली। किसी उलझी हुई ऐतिहासिक गुत्थी पर उत्कट चिन्तन की अवस्था में "परोक्षप्रियाः वै देवा:" इस तथ्य की भी अनुभूति हुई । अतः उस अचिन्त्य शक्ति के प्रति भी अपना प्रान्तरिक आभार प्रकट करता हूँ । "श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद" के संचालक पं० श्री दलसुखभाई मालवणियां ने “तित्थोगालिय पइण्णा", भद्रेश्वरसूरी की " कहावली" जैसे अलभ्य ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियों को पढ़ने एवं उनके महत्वपूर्ण स्थलों को लिख लेने की सुविधा प्रदान की, उसके लिये मैं हार्दिक आभार प्रकट करता है। श्री मालवरिणयां साहब व भारतीय संस्कृति बिद्यामन्दिर में कार्य करने वाले अधिकारियों का सुमधुर स्नेह, सौहार्द और सहयोग मेरे हृदयपटल पर सदा अंकित रहेगा । "तित्थोगालिय पइण्णा" वस्तुतः कतिपय महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों के प्रतिपादन में प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता श्राचार्य श्री के लिये बड़ी सहायक सिद्ध हुई । लब्धप्रतिष्ठ इतिहासज्ञ एवं श्रागमवेत्ता वयोवृद्ध विद्वान् मुनि श्री कल्याणविजयजी म. सा. ने अप्राप्य ग्रन्थ "हिमवन्त स्थविरावली" की हस्तलिखित प्रति की प्रतिलिपि करने की सुविधा प्रदान कर एवं अपना प्रेरणा प्रदायी श्रात्मवृत्त सुना तथा दिशानिर्देश कर मुझे अनुप्राणित किया, उस उपकार के प्रति अपने अन्तर के उद्गार प्रकट करने में मैं उसी प्रकार प्रसमर्थ हूँ जिस प्रकार कि प्रथम बार गुड़ का रसास्वादन करनेवाला गूंगा गुड़ का स्वाद बताने में। एक प्रजैन कुल में उत्पन्न हुप्रा शिशु सुयोग और सुसंसर्ग पाकर कितना बड़ा धर्म प्रभावक बन सकता है, इस तथ्य के साक्षात् दर्शन कर प्रह्लाद के साथ-साथ अंतर में एक अदम्य द्वन्द्वप्रान्दोलित हो उठा। कितना साम्य था हमारे प्रारम्भिक जीवन का । सम्भवतः दोनों के किशोरवय के भोले निश्छल मानस में समान अध्ययन के फलस्वरूप बहुत कुछ कर गुजरने की एक समान ही उमंगें उठी होंगी। पर " गहना कर्मणो गतिः " इस शाश्वत सत्य को चरितार्थ करती हुई एक प्रोर वे उमंगें दृढ़ संकल्प के सहारे अनुकूल वातावरण में उत्तरोत्तर फली फूलीं और सुरतरु का स्वरूप धारण कर गईं। दूसरी प्रोर सच्ची लगन के प्रभाव में मेरे कच्चे हृदय में उठी उसी तरह की उमंगें प्रतिकूल वातावरण की प्रचण्ड प्रग्नि में जलभुन कर राख बन गईं। सब कुछ प्राप्त करके भी मैं प्रति कंटीला बौना बबूल ही बना रहा । भयावह प्रात्मग्लानि से कराह उठा अन्तर - त्वत्तः सुदुष्प्राप्यमिदं मयाप्तं, रत्नत्रयं भूरिभवभ्रमेण । प्रमादनिद्रावशतो गतं तद्, कस्याग्रतो नायक ! पूत्करोमि ।। अन्तर में धुकधुकाती त्रिविध ताप की भट्टी पश्चात्ताप के पानी से कुछ Jain Education International ( ६ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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