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________________ सं० १७० (श्वे. मान्यतानुसार) अथवा वीर नि० सं० १६२ (दिगम्बर मान्यतानुसार) स्वर्गस्थ हुए श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाह के जीवन की घटनाओं के साथ अनुमानतः वीर नि० सं० ६३० से ६६० के बीच हुए नैमित्तिक भद्रबाहु के जीवन की घटनाओं को नाम साम्य के कारण जोड़ दिए जाने के फलस्वरूप दोनों परम्परामों में एक लम्बे समय से अनेक भ्रान्त धारणाएं चली आ रही हैं। इस प्रकरण में इन्हीं दोनों परम्पराओं के प्राचीन एवं मध्ययुगीन ग्रन्थों तथा शिलालेख के आधार पर दोनों परम्पराओं के हृदयों में घर की हुई उन भ्रान्तियों का निराकरण किया गया है। भगवान् महावीर का धर्मसंघ श्वेताम्बर और दिगम्बर - इन दो परम्पराओं के रूप में किस प्रकार विभक्त हुया - इस विषय में तो दोनों परम्पराओं की मान्यताओं में प्राकाश-पाताल का सा अन्तर है। किन्तु यह मतभेद किस समय उत्पन्न हुमा - इस प्रश्न पर यदि मोटे तौर पर विचार किया जाय तो दोनों परम्परात्रों की मान्यता में कोई विशेष अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होगा। केवल तीन वर्ष का अन्तर है। इस प्रकार का सम्प्रदायभेद दिगम्बर परम्परा की प्राचीन एवं साधारणतया वर्तमान में प्रचलित मान्यतानुसार वीर नि० सं०६०६ में और श्वेताम्बर परम्परा की सर्वसम्मत मान्यतानुसार वीर नि० सं० ६०६ में उत्पन्न हुग्रा, माना जाता है। दिगम्बर मत कब और किस प्रकार उत्पन्न हुआ इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थकार एकमत हैं। जबकि श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति कब और किस प्रकार हुई - इस विषय में दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थकारों में मतैक्य नहीं है। इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के जिन-जिन ग्रन्थों में उल्लेख देखे गये हैं वे सब परस्पर एक दूसरे से न्यूनाधिक भिन्न ही हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के उपरिलिखित प्रकरण में पृष्ठ संख्या ३३७ से ३५८ तक २२ पृष्ठों में एतद्विषयक दिगम्बर परम्परा की विभिन्न मान्यताओं का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। दिगम्बर-परम्परा के प्राचार्य देवसेनकृत 'भावसंग्रह' (दर्शनसार के कर्ता से भिन्न) प्राचार्य हरिषेणकृत 'वृहत्कथाकोष' (वीर नि० सं० १४५६), अपभ्रंश भाषा के कवि रयधूकृत 'महावीर चरित्' (वि० सं० १४६५ तदनुसार वीर नि० सं० १९६५) और भट्टारक रत्ननन्दिकृत 'भद्रबाहु चरित्र' (वि० सं० १६२५ तदनुसार वीर नि० सं० २०६५) - इन चार ग्रन्थो में श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में श्वेताम्बर परम्परा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन उल्लेख 'दर्शनसार' का है। अपने से पूर्ववर्ती किसी प्राचीन प्राचार्य द्वारा रचित एक गाथा' को प्राचार्य देवसेन ने वि० सं० ६६० में रचित अपने ' छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरठे उप्पण्णो, सेवडसंघो हु वल्लहीए॥ [दर्शनसार तथा भावसंग्रह] ( १० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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