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________________ कि भगवान् ने ऐसा देखा जाना उपदेश दिया और इस प्रकार की ग्राज्ञाएं दीं, जैसा मैंने उनसे सुना वही कह रहा है । इन सब तथ्यों को दृष्टि में रखते हुए तीर्थेश्वर भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रुतपरम्परा को पंचम आारक की समाप्ति पर्यन्त अविच्छिन्न एवं उत्कर्ष की ओर अग्रसर करने वाली उनकी प्रज्ञात्रों को प्रक्षुण्ण बनाये रखने के लिये केवली गौतम को भगवान् का प्रथम पट्टधर न मान कर चतुर्दश पूर्वधर और मनः पर्यवज्ञानी सुधर्मा को माना गया । धवलाकार (शक सं० ७३८ अनुमानतः ) से ३५८ वर्ष पूर्व मुनि सर्वनन्दि (शक सं० ३८० ) १ द्वारा रचित 'लोक - विभाग (प्राकृत) के संस्कृत रूपान्तरकार सिंहसूरषि ने 'लोक-विभाग' (संस्कृत) की प्रशस्ति में लिखा है --- देवों और मनुष्यों की सभा में तीर्थंकर वर्द्धमान प्रभु ने भव्यजनों के हित के लिये जगत् का विधान कहा, जो सुधर्मा स्वामी आदि ने जाना और जो श्राचार्य - परम्परा से आज तक चला श्रा रहा है, उसे सिंहसूर ऋषि ने भाषापरिवर्तन कर विरचित किया उसका निपूरण जनों ने सम्मान किया है । इससे अनुमान किया जाता है कि दिगम्बर समाज में भी प्राचीन काल में ग्रार्य सुधर्मा को भगवान् महावीर का प्रथम पट्टधर मानने की परम्परा प्रचलित थी । श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य धर्मघोप ने अपनी 'दुस्ममाकालसमरणसंघथयं' - नामक ( ऐतिहासिक महत्व की ) एक छोटी सी स्तुतिपरक पुस्तिका की प्रवरी में वीर नि० १ से ६० तक पालक के ६० वर्ष के राज्यकाल में हुए युगप्रधान पुरुषों का उल्लेख करते हुए लिखा है : " तस्स य वरिस ६० रज्जे गोयम १२ सुहम्म ८ जंबू ४४ जुगप्पहारणा ।"3 कुछ विद्वानों का इस पर यह श्रभिमत हो सकता है कि इन तीनों का पृथक् पृथक् समय देते हुए जो कालक्रम की कड़ियां जोड़ी गई हैं, वह भगवान् महावीर के पट्टानुक्रम की घोर ही स्पष्ट इंगित है । परन्तु इस प्रश्न पर सूक्ष्म दृष्टि से थोड़ी सी गम्भीरतापूर्वक विचार करते ही इस प्रकार की प्राशंका निराधार सिद्ध हो जायगी। युगप्रधान पट्टावली में इन्द्रभूति गौतम का कहीं १ प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० ४५ २ मध्येभ्यः सुरमानुपोरुसदसि श्रीवर्द्ध मानार्हता, यत्प्रोक्तं जगतो विधानमखिलं ज्ञानं सुधर्मादिभिः । प्राचार्यावलिकागतं विरचितं तत् सिंहमूरपिणा, भाषायाः परिवर्तनेन निपुणैः सम्मानितं साधुभिः || 3 म्रायं जम्बू के ग्रन्तिम ४ वर्षों की गणना श्रवचूरिकार ने श्रागे चलकर नन्द के राज्य में कर ली है । Jain Education International ( ८२ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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