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________________ यापनीय साहित्य : ७५. संघ के पास थी, क्योंकि विजयोदया टोका में आगमों के जो उद्धरण हैं वे श्वेताम्बर आगमों में बिल्कूल ज्यों के त्यों नहीं कुछ पाठ-भेद के साथ मिलते हैं।' यापनीयों के पास स्कंदिल की माथुरी वाचना के आगम थे यह मानने में एक बाधा आती है, वह यह कि स्वंदिल की वाचना का काल वीर नि० ८२७-८४० अर्थात् ईसा की तृतीय शती का अन्त और चतुर्थशती का प्रारम्भ है, जबकि संघभेद उसके लगभग २०० वर्ष पहले हीघटित हो चुका था । अतः प्रो० ढाकी की यह मान्यता उचित ही है कि वह वाचना फल्गुमित्र की रही होगी। यापनीयों ने उसमें अपने मंतव्यों के अनुसार कुछ प्रक्षेप भो किया होगा। यद्यपि फल्गमित्र की परम्परा की इस वाचना के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश कहीं भी उपलब्ध नहीं है। निष्कर्ष यह है कि यापनीय आगम वही थे, जो उन नामों से आज श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध हैं। मात्र उनमें किचित् पाठभेद था तथा भाषा की दष्टि से शौरसेनी का प्रभाव अधिक था। यापनीय ग्रन्थों में आगमों के जो उद्धरण मिलते हैं उनमें कुछ तो वर्तमान श्वेताम्बर परम्परा के आगमों में अनुपलब्ध हैं, कुछ पाठान्तरण के साथ उपलब्ध हैं। जो अनुपलब्ध हैं, उनके सम्बन्ध में दो विकल्प हैं-प्रथम यह कि मूलागामों के वे अंश बाद के श्वेताम्बर आचार्यों ने अगली वाचना में निकाल दिये और दूसरा यह कि वे अंश यापनीय मान्यता के प्रक्षिप्त अंश हैं। किन्तु प्रथम विकल्प में इसलिए विश्वास नहीं होता कि यदि परवर्ती वाचनाओं में वे सब बातें, जो उस युग के आचार्यों को मान्य नहीं थीं या उनको परम्परा से विरुद्ध थीं, निकाल दी गई होती तो वर्तमान श्वेताम्बर आगमों में अचेलता के समर्थक सभी अंश निकाल दिये जाने चाहिए थे। मझे ऐसा लगता है कि आगमों की वाचनाओं ( संकलन ) के समय केवल वे ही अंश नहीं आ पाये थे जो विस्मृत हो गये थे अथवा पूनरावत्ति से बचने के लिए 'जाव' पाठ देकर वहाँ से हटा दिये गये थे। मान्यता भेद के कारण कुछ अंश जानबूझकर निकाले गये हों, ऐसा कोई भी विश्वसनीय प्रमाण हमें नहीं मिलता। किन्तु यह हो सकता है कि वे अंश किसी अन्य गण की वाचना के रहे हों, जिनके प्रतिनिधि उस वाचना में सम्मिलित नहीं थे। कुछ ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि विभिन्न १. जैन साहित्य और इतिहास पृ० ६० १. प्रो० मधुसूदन ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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