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________________ जेसि आउसमा केपी । ते अकदसमुग्धादा जिणा उवणमंति सेलेसि ॥२१०४|| 'जेसि आउसमाई' येषामपि आयुःसमानि शेषाण्यघातिकर्माणि तेऽकृतसमुद्धाता एव शैलेश्यं प्रतिपद्यते ॥२१०४॥ जेसिं हवंति विसमाणि णामगोदाउवेदणीयाणि । ते दु कदसमुग्धादा जिणा उवणमंति सेलेसिं ॥२१०५।। ठिदिसंतकम्मसमकरणत्थं सन्वेसि तेसि कम्माणं । अंतोमुहत्त सेसे जंति समुग्धादमाउम्मि ।।२१०६॥ "ठिदिसत्तकम्म' सत्कर्मणां स्थिति समीकर्तुं चतुर्णा अंतर्मुहूतविशेषे आयुषि समुद्धातं यांति ॥२१०५-२१०६॥ ओल्लं संतं वत्थं विरल्लिदं जह लहु विणिव्वादि । संवेढियं तु ण तथा तधेव कम्मं पि णादव्वं ॥२१०७॥ 'मोल्लं संत' आई सद्यथा वस्त्रं विप्रकीर्ण लघु शुष्यति न तथा संवेष्टितं एवमेव कर्मापि ज्ञातव्यम् ।।२१०७॥ ठिदिबंधस्स सिणेहो हेदू खीयदि य सो समुहदस्स । सडदि य खीणसिणेहं सेसं अप्पट्टिदी होदि ।।२१०८॥ 'ठिदिबंधस्स' स्थितिबन्धस्य स्नेहो हेतुविनश्यति। समुद्धातं गते 'सटति' च क्षीणस्नेहं शेषं कर्माल्पस्थितिकं भवति ॥२१०८॥ गा०—जिनके नामकर्म, गोत्रकर्म, वेदनोयकर्मकी स्थिति आयुकर्मके समान होती है वे सयोगकेवली जिन समुद्धात किये बिना शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होते हैं ।।२१०४॥ गा०—किन्तु जिनकी आयुकी स्थिति कम होती है और नामगोत्र और वेदनीय कर्मो की स्थिति अधिक होती है वे सयोगकेवली जिन समुद्धात करके ही शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होते हैं अर्थात् अयोगकेवली होते हैं ॥२१०५॥ गा०–अन्तमुहूर्त आयु शेष रहनेपर चारों कर्मो की स्थिति समान करनेके लिये समुद्धात करते हैं ॥२१०६॥ गा०-जैसे गीला वस्त्र फैला देनेपर वह शीघ्र सूख जाता है उतनी शीघ्र इकट्ठा रखा हुआ नहीं सूखता । कर्मो की भी वैसी ही दशा जानना । आत्म प्रदेशोंके फैलावसे सम्बद्ध कर्मरजकी स्थिति बिना भोगे घट जाती है ।।२१०७।। गा०–समुद्धात करनेपर स्थितिबन्धका कारण जो स्नेहगुण है वह नष्ट हो जाता है। और स्नेहगुणके क्षीण होनेपर शेष कर्मो की स्थिति घट जाती है ।।२१०८|| १. एतां टीकाकारो नेच्छति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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