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________________ ८५१ विजयोदया टीका सुयभत्तीए विसुद्धा उग्गतवणियमजोगसंसुद्धा ।। लोगंतिया सुरवरा हवंति आराधया धीरा ॥१९३२।। जावदिया रिद्धिओ हवंति इंदियगदाणि य सुहाणि । ताई लहंति ते आगमसिं भद्दा सया खवया ॥१९३३।। 'जावदिया रिद्धीओ' यावन्त्यः ऋद्धयो भवन्ति यावन्तीन्द्रियसुखानि च भवन्ति तानि सर्वाणि लप्स्यन्ते भद्राशयाः क्षपकाः ॥१९३२-१९३३॥ जे वि हु जहणियं तेउलेस्समाराहणं उवणमंति । ते वि हु सोघम्माइसु हवंति देवा. ण हेडिल्ला ॥१९३४॥ 'जे वि हु जहण्णिय' येऽपि जघन्यामाराधनां तेजोलेश्याप्रवृत्तामुपनमन्ति तेऽपि सौधर्मादिषु देवा भवन्ति, नाधोभाविनो देवाः ।।१९३४॥ किं जंपिएण बहुणा जो सारो केवलस्स लोगस्स । तं अचिरेण लहंते फासित्ताराहणं णिहिलं ॥१९३५॥ 'कि जपिएण बहुणा' किं बहुनोक्तेन यत्सर्वस्यास्य लोकस्य सारभूतं तदचिरेण लभन्ते आराधनां प्रपन्नाः ।।१९३५।। भोगे अणुत्तरे भुंजिऊण तत्तो चुदा सुमाणुस्से। इड्ढिीमतुलं चइत्ता चरंति जिणदेसियं धम्म १९३६॥ 'भोगे अणुत्तरे' भोगानुत्कृष्टान् भुक्त्वा स्वर्गच्युता मनुष्यभवेऽपि प्राप्य सकलामृद्धि तां च त्यक्त्वा जिनाभिहितं धर्म चरन्ति ।।१९३६॥ गा० -श्रुतभक्तिसे विशुद्ध, उग्रतप, नियम और आतापन आदि योगसे शुद्ध धीर आराधक लौकान्तिक देव होते हैं ।।१९३२।। गा०—जितनी ऋद्धियाँ हैं और जितने भी इन्द्रिय सुख हैं उन सबको भद्रपरिणामी क्षपक आगामी कालमें प्राप्त करते हैं ॥१९३३।। गा०-तेजोलेश्यासे युक्त जो क्षपक जघन्य आराधना करते हैं वे भी सौधर्म आदि स्वर्गोमें देव होते हैं, नीचेके देव नहीं होते । अर्थात् भवनत्रिकमें जन्म नहीं लेते ॥ १९३४॥ गा०-अधिक कहनेसे क्या ? जो समस्त लोकका सारभूत है उस सबको आराधना करने वाले शीघ्र ही प्राप्त कर लेते हैं ।।१९३५॥ गा०-स्वर्गोंके उत्कृष्ट भोगोंको भोगकर स्वर्गसे च्युत होनेपर मनुष्य भवमें जन्म लेते हैं और वहाँ भी समस्त ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। फिर उसे त्यागकर जिन भगवानके द्वारा कहे हुए धर्मका पालन करते हैं ॥१९३६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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