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________________ ८२८ भगवती आराधना विसयाडवीए उम्मग्गविहरिदा सुचिरमिंदियस्सेहिं । जिणदिट्ठणिव्वदिपहं धण्णा ओदरिय गच्छंति ॥१८५५।। ____ "विसयाडवीए' विषयाटव्यां उन्मार्गविहारिण सुचिरमिन्द्रियाश्वबलान्नीताः सन्तः ये च जिनदृष्टनिवृत्तिमार्ग गच्छन्ति ते धन्या इन्द्रियाश्वेभ्योऽवरुह्य ॥१८५५।। रागेण य दोसेण य जगे रमंतम्मि वीदरागम्मि । धम्मम्मि णिरासादम्मि रदी अदिदुल्लहा होइ ॥१८५६॥ 'रागेण य दोसेण य जगे रमंतम्मि' रागद्वेषाभ्यां सह जगति क्रीडति । वीतरागे धर्मे निरास्वादे रतिरतीव दुर्लभा भवति । उक्तं च कुलंच रूपं च यशश्च कोतिर्धनं च विद्या चं सुखं च लक्ष्मीः । आरोग्यमाज्ञप्सितसप्रयोगो द्वेष्यवियोगोऽपि च दीर्घमायुः॥ स्वर्गश्च मोक्षश्च मयोपदिष्टा भावा इमेऽन्ये च जगत्प्रशस्ताः। धर्मेण शक्या जगतीह लब्धु, हिताय तं कतु मतोऽर्हसि त्वं' ।। [॥१८५६।। ] सहलं माणुसजम्मं तस्स हवदि जस्स चरणमणवज्जं । संसारदुक्खकारयकम्मागमदारसंरोधं ॥१८५७।। 'सहलं माणुसजम्म' तस्य मनुष्यस्य जन्म सफलं भवति यस्य चरणमनवद्यं । कीदृशं ? संसारदुःखसंपादनोद्यतकर्मागमद्वारनिरोधकारी । अनेन चारित्रमिह शब्दो धर्मत्वेनोच्यत इत्याख्यातं भवति ।।१८५७।। जह जह णिव्वेदसमं वेरग्गदयादमा पवढंति । तह तह अब्भासयरं णिव्वाणं होइ पुरिसस्स ।।१८५८॥ गा०-जो विषयरूपी वनमें इन्द्रियरूपी घोड़ोंके द्वारा बलपूर्वक ले जाये जाकर चिरकालसे कुमार्गमें विहार करते हैं और एक दिन उन इन्द्रियरूपी घोड़ेसे उतरकर जिन भगवान्के द्वारा कहे मोक्षमार्गमें चलने लगते हैं वे धन्य हैं ॥१८५५।।। ___ गा.-टी०--जो राग और द्वेषपूर्वक संसारके भोगोंमें फंसे हैं, स्वादरहित वीतराग धर्ममें उनकी रुचि होना अतिदुर्लभ है। कहा भी है-जिनेन्द्रदेवने कुल, रूप, यश, कीर्ति, धन, विद्या, सुख, लक्ष्मी, आरोग्य, इष्टसंयोग, अनिष्ट वियोग, दीर्घ आयु, स्वर्ग, मोक्ष तथा अन्य भी जगत्में प्रशस्त भाव कहे हैं । इस जगत्में उन्हें धर्मके द्वारा प्राप्त करना शक्य है। अतः तुम अपने हितके लिये धर्माचरण करो ॥१८५६।। ___ गा०-संसारके दुःखोंको करनेमें समर्थ कर्मो के आनेके द्वारको रोकनेवाला चारित्र जिसका निर्दोष है उसका मनुष्य जन्म सफल है। यहाँ धर्म शब्दसे चारित्र कहा है, इससे यह प्रकट होता है ।।१८५७॥ गाo-जैसे-जैसे मनुष्यमें वैराग्य, निर्वेद, उपशम, दया और चित्तका निग्रह बढ़ता है वैसे-वैसे मोक्ष निकट आता है ॥१८५८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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