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________________ ८०८ भगवती आराधना मृत्तिकालिप्ता । 'बहुकुणिमभंडभरिदा' अनेकाशुचिद्रव्यपूर्णा । 'विहिंसणिज्जा खु कुणिमकुडो' जुगुप्सनीया अशुचिकुटी ॥१८१०॥ इंगालो धुव्वंतो ण सुद्धिमुवयादि जह जलादीहिं । तह देहो धोव्वंतो ण जाइ सुद्धिं जलादीहिं ॥१८११।। 'इंगालो धोव्वंतो' प्रक्षाल्यमाना मषो न शुद्धमुपयाति न शुक्लतामुपयाति । 'जह' यथा । 'जलादीहिं' जलादिभिः । 'तह देहो धोव्वंतो' तथा शरीरं प्रक्षाल्यमानं । 'ण जादि सुद्धि जलादीहि न याति शुद्धि जलादिभिः ॥१८११॥ सलिलादीणि अमेज्झं कुणइ अमेज्झाणि ण दु जलादीणि । भेज्झममेज्झं कुव्वंति सयमवि मेज्झाणि संताणि ॥१८१२।। 'सलिलादीणि' सलिलादीनि द्रव्याणि शुचीनि । 'अमेज्झं कुणदि' अमेध्यं करोति । 'अमेज्झाणि' अशुचीनि । 'ण दु जलादीणि मेज्झं कुणदि' नैवं जलादीनि शुचितामापादयन्तीति । 'अमेज्झाणि' अशचीनि 'सयममेज्माणि संताणि' अमेध्ययोगात् स्वयमशुचीनि सन्ति ।।१८१२॥ तारिसयममेज्झमयं सरीरयं किह जलादिजोगेण । मेझं हवेज्ज मेझं ण हु होदि अमेज्झमयघडओ ।।१८१३॥ 'तारिसयमज्झमयं' शुचीनामशुचिताकरणसमर्थाशुचिमयं शरीरकं । 'किह' कथं । 'नलाविजोगेण' जलादिसम्बन्धेन । 'मेझं हवेज्ज' शुचिर्भवेत् । 'अमेज्झमय घडगो' अमेध्यमयो घटः । न सू मेलो होदि' नैव शुचिर्भवति । यथा जलादियोगेन ॥१८१३॥ यदि शरीरमशुचि किं तर्हि शुचीत्यत्राह णवरि हु धम्मो मेज्झो धम्मत्थस्स वि णमंति देवा वि । घम्मेण चेव' जादि ख साहू जल्लोसधादीया ।।१८१४।। वाँधी हुई है। मांसरूपी मिट्टीसे लीपी गई है तथा अनेक अपवित्र वस्तुओंसे भरी हुई है। इस तरह यह शरीररूपी कुटिया घृणास्पद है ॥१८१०।। गा०-जैसे कोयलोंको जलादिसे धोनेपर भी वे सफेद नहीं होते। उसी प्रकार जलादिसे धोनेपर भी शरीरकी शुद्धि नहीं होती ।।१८११।। गा०-अपवित्र शरीर जलादिको भी अपवित्र कर देता है। अर्थात् शरीरके सम्बन्धसे निर्मल जल मैला हो जाता है। जल स्वयं मैला नहीं है, स्वयं तो निर्मल ही है किन्तु जल शरीरको पवित्र नहीं बनाता। बल्कि शरीरके संयोगसे जल ही अपवित्र हो जाता है ।।१८१२।। गा.-निर्मलको मलीन करनेवाला अपवित्र शरीर जलादिके सम्बन्धसे कैसे पवित्र हो सकता है। क्या मलसे भरा घड़ा पानोसे धोनेसे पवित्र हो सकता है ।।१८१३।। यह शरीर अपवित्र है तो पवित्र कौन है, इसका उत्तर देते हैग.-किन्तु धर्म पवित्र है क्योंकि रत्नत्रयात्मक धर्ममें स्थितको देव भी नमस्कार करते १. चेव हुँति हु साहू -अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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