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________________ विजयोदया टीका ७८१ करोति जनं हि जनो ममायं भ्राता पिता पुत्रो भागिनेयो दासःस्वामीति', वा मोहाद्वस्तुतत्वस्य अन्यतामात्ररूपस्य निरस्तस्वजनत्वस्य परिज्ञानात् ॥१७५०॥ प्रकारांतरेण स्वजनपरजनविवेकाभावं दर्शयत्युत्तरगाथा सव्वो वि जणो सयणो सव्वस्स वि आसि तीदकालम्मि । एंते य तहाकाले होहिदि सजणो जणस्स जणो ॥१७५१॥ 'सव्वो वि जणो सजणो' निरवशेषो जन्तुरनन्तः स्वजनः । 'सव्वस्स वि' सर्वस्यापि प्राणभृतः । 'तीदकालंमि' अतीते काले 'आसि' आसीत् । 'एते य तथा काले' भविष्यति तथा काले । 'होहिदि' भविष्यति । 'सजणो जणस्स जणो' स्वजनो जनस्य जनः । एतदनेनास्यायते अतीते भविष्यति च काले सर्वस्य सर्वः स्वजन असीद्भविष्यति च । ततस्सर्वसाधारणत्वे स्वजनत्वस्य सति ममायं स्वजन इति मिथ्यासंकल्पः। तेऽप्यन्ये ममाप्य"न्यस्तस्य इत्येतदेव तत्त्वमित्यन्यत्वस्य स्वपरविषयस्यानुप्रेक्षणमन्यत्वानुप्रेक्षा ॥१७५१॥ रत्तिं रत्तिं रुक्खे रुक्खे जह सउणयाण संगमणं । जादीए जादीए जणस्स तह संगमो होई ।।१७५२।। 'रति रत्ति' रात्री रात्रौ । 'रुक्खे रुक्खे' वृक्षे वृक्षे । 'जह सउणयाण संगमणं' यथा पक्षिणां संगमनं । 'जादीए जादीए' जन्मनि जन्मनि । 'जणस्स' जनस्य । 'तहा' तथा । 'संगमो होदि' संगमो भवति । यथा रात्रावाश्रयमन्तरेण स्थातुमसमर्थाः पक्षिणो योग्यं वृक्षमन्विष्य ढोकते । तद्वत्प्राणिनोपि निरवशेषगलितायः पुद्गलस्कन्धाः परित्यक्तप्राक्तनशरीराः शरीरांतरग्रहणार्थिनः शरीरग्रहणयोग्यदेशं योनिसंज्ञितमास्कन्दन्ति । उसका चारित्र सर्वत्र एकरूप होता है। यह मेरा भाई, पिता, पुत्र, भानेज, दास या स्वामी है इस प्रकार आसक्ति मनुष्य मोहवश करता है। वस्तुतत्त्व तो अन्यतामात्र रूप है उसमें कोई स्वजन नहीं है ॥१७५०॥ प्रकारान्तरसे स्वजन और परजनके भेदका अभाव कहते हैं गा०-अतीतकालमें सब प्राणियोंके समस्त अनन्त जीव स्वजन थे। तथा भविष्यत् कालमें सब प्राणियोंके सब जीव स्वजन होंगे ॥१७५१।। टो-इस गाथासे यह कहा गया है कि अतीत कालमें सबके सब जीव स्वजन थे और भविष्यमें सबके सब जीव स्वजन होंगे। इस प्रकार जब सभी जीव स्वजन हैं तो यह मेरा स्वजन है इस प्रकारका संकल्प मिथ्या है। वे मुझसे अन्य हैं और मैं उनसे अन्य हूँ, इस स्वपरविषयक अन्यत्व तत्त्वका चिन्तन अन्यत्वानुप्रेक्षा है ॥१७५१।। ___ गा०-जसे प्रत्येक रात्रिमें प्रत्येक वृक्षपर पक्षियोंका संगम होता है उसी प्रकार जन्मजन्ममें मनुष्योंका संगम होता है ॥१७५२॥ टी.-जैसे रात्रिमें आश्रयके बिना रहने में असमर्थ पक्षी योग्य वृक्षको खोजकर उसपर बसेरा लेते हैं। उन्हींकी तरह संसारके प्राणी भी जब उनके आयुकर्मके पुद्गल स्कन्ध पूर्णरूपसे १. ति व्यामो० -आ० । २. जनपरि -आ० । ३. अपरिज्ञानात् इति प्रतिभाति । ४. तेनान्यो ममाप्यनस्तेन्य इत्यन्यदेव -आ०। ५ न्यस्त्यत्य इ -अ० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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