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________________ ७७८ भगवती आराधना कथं न वैचित्र्यं धर्मस्य । अथ न धर्मो हेतु: 'स्वहेतुसामान्यायत्तता सुखसाधनानां सातिशयनिरतिशयतदायत्तः फलविभाग इति धर्मस्यानर्थक्यमापद्यते । ततो न धर्मस्य सर्वथा नित्यता ॥१७४७।। शरीरद्रविणादीनां असहायताभावनां तद्गोचरानुरागनिवर्त्तनमुखेन स्थिरयत्युत्तरगाथा बद्धस्स बंधणेण व ण रागो देहम्मि होइ णाणिस्स । विससरिसेसु ण रागो अत्थेसु महाभयेसु तहा ।।१७४८।। 'बद्धस्स बंधणेण व ण रागो' रज्जुशृङ्खलादिभिर्बद्धस्य बन्धनक्रियासाधकतमे रज्ज्वादी दुःखहेतौ यथा न रागः । तथा 'देहम्मि होदि गाणिस्स' सुखदुःखसाधनविवेकज्ञस्य दुःखहेतावसारेऽस्थिरेऽशुचिनि काये न रागो भवति । गुणपक्षपातिनो हि प्राज्ञाः । “विससरिसेसु' विषसदृशेष्वपि 'ण रागो णाणिस्स' ज्ञानिनो नैव रागः । केषु ? 'अत्थेसु सम्वेसु' । कथमर्थानां विषसदृशतेति चेत् । यथा विषं दुःखदायि प्राणान्वियोजयति च तथार्थोऽप्यर्जनरक्षादिषु व्यापृतं दुःखेन योजयति, प्राणानां च विनाशे निमित्तं भवति । तथाहि । प्राणिनोऽर्थार्थ एव परस्परं प्रघाते प्रयतन्ते अतएव महाभयहेतुत्वान्महाभयतार्थानां सूत्रकारेणोक्ता । 'अत्थेसु महाभयेसु' इति । यद्धि यस्यानुपकारि तस्य तस्मिन्न विवेकिनः सहायबुद्धिर्यथा विषकण्टकादौ, अपकारि शरीरद्रविणादिकमिति पुनः पुनरम्यस्यतो नेतरः सहायोऽयमिति चिन्ताप्रबन्धः प्रवर्तते ।। एकत्त ॥१७४८॥ हैं । इसमें धर्म भी कारण है या नहीं ? यदि धर्म भी कारण है तो धर्ममें वैचित्र्य क्यों नहीं हुआ। यदि कहोगे कि धर्म कारण नहीं है. सखके साधन अपने सामान्य कारणोंके अधीन हैं और जो सातिशय तथा निरतिशय फलभेद पाया जाता है वह भी उन्हींके अधीन है तो धर्म निरर्थक सिद्ध होता है । अतः धर्म सर्वथा नित्य नहीं है ।।१७४७।। विशेषार्थ-यहाँ टीकाकारका धर्मसे अभिप्राय शुभ परिणार्मोसे है। शुभ परिणामोंकी हीनाधिकताके अनुसार पुण्यबन्ध में विचित्रता होती है और तदनुसार फलमें विचित्रता होती है ॥१७४७|| शरीर धन आदिमें असहायताकी भावनाको उनके विषयमें जो अनुराग है उस अनुरागको हटानेके द्वारा स्थिर करते हैं __ गा०-टी०-जैसे पुरुष रस्सी सांकल आदिसे बँधा है उसे बन्धन क्रियामें साधकतम रस्सी आदिमें राग नहीं होता क्योंकि वे उसके दुःखमें हेतु हैं, उसी प्रकार जो अपने सुख और दुःखके साधनोंमें भेदको जानता है उसे दुःखके हेतु, असार, अस्थिर अशुचि शरीरमें राग नहीं होता। विद्वान्जन गुणोंके पक्षपाती होते हैं । अतः विषके समान सब अर्थो में ज्ञानीका राग नहीं होता। शंका-सब अर्थ विषके समान कैसे हैं ? समाधान-जैसे विष दुःखदायीहै, प्राण हरण कर लेता है वैसे ही अर्थ भी जो उसके उपाजन और रक्षणमें लगता है उसे दुःख देता है। तथा प्राणोंके विनाशमें निमित्त होता है। इसका खुलासा इस प्रकार है-प्राणीगण अर्थके लिये ही परस्परमें घात करने में लगते हैं। इसीलिये ग्रंथकारने महाभयका कारण हानेसे अर्थों को महाभयरूप कहा है। जो जिसका उपकार नहीं करता, बल्कि अनुपकार करता है विवेकी पुरुष उसे अपना सहायक नहीं मानते । जैसे विषकण्टक १. सहेतु -अ० मु० । २. यत्तसु -अ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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