SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 823
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७५६ भगवती आराधना किमर्थमसौ ध्यानयोः शुभयोर्वर्तत इत्याशङ्कायां ध्यानप्रवृत्ती कारणमाचष्टे इंदियकसायजोगणिरोधं इच्छं च णिज्जरं विउलं । चित्तस्स य वसियत्तं मग्गादु अविप्पणासं च ।।१७००॥ 'इंदियकसायजोगणिरोध' स्पर्शादिषपजात उपयोग इन्द्रियशब्देनोच्यते । कषायाः क्रोधादयस्तै योगः । सम्बन्धस्तस्य निरोधं निवारणामिच्छन्निरां च विपुलामिच्छन्, वस्तुयाथात्म्यसमाहितचित्तस्य नेन्द्रियविषयजन्योपयोगसंभवः, कषायाणां चोत्पत्तिः 'चित्तस्स य वसियत्तं' चित्तस्य स्ववशत्वं इच्छन् स्वेष्टे विषये चित्तमसकृत्स्थापयतोऽनिष्टाच्च व्यावर्तयतः स्ववशं भवति चित्तं । 'मग्गादो अविप्पणासंच' मार्गाद्रत्नत्रयादविप्रणाशं च वांछन्, अशुभध्यानप्रवृत्तो रत्नत्रयात्प्रच्युतो भवामीति ध्याने प्रयतते ॥१७००।। ध्यानपरिकरप्रतिपादनायोत्तरगाथा किंचिवि दिद्विमुपावत्तइत्त झाणे णिरुद्धदिट्ठीओ । अप्पाणंहि सदि संघित्ता संसारमोक्खटुं ॥१७०१॥ "किंचिवि दिट्टिमुपावत्तइत्त' बाह्यद्रव्यालोकात् किंचिच्चक्षुर्व्यावर्तयित्वा । 'झाणे णिरुद्धविट्ठीओ' एकविषये परोक्षज्ञाने निरुद्धचैतन्यः । 'दृष्टिनिमित्ते हि चैतन्ये दृष्टिशब्दोऽत्र युक्तः । 'अप्पाणंहि' आत्मनि । 'सदि' स्मृति । 'संघित्ता' संधाय । स्मृतिशब्देनात्र श्रुतज्ञानेनावगतस्यार्थस्य स्मरणमुच्यते, 'संसारमोक्खटुं' संसारविमुक्तये ॥१७०१॥ वह क्षपक किसलिये शुभ ध्यान करता है ? इस शंकाके उत्तरमें उसके कारण कहते हैं गा०-इन्द्रिय और कषायोंसे सम्बन्धको रोकने, अत्यधिक निर्जराको चाहने, चित्तको वशमें करने और रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गको नष्ट न होने देनेके लिये संपक शुभ ध्यान ही करता है ।।१७००॥ टो०-यहाँ इन्द्रिय शब्दसे स्पर्श आदिसे उत्पन्न हुआ उपयोग कहा है। कषायसे क्रोधादि लिये हैं। जिसका चित्त वस्तुके यथार्थ स्वरूपसे समाधान युक्त होता है उसकी प्रवृत्ति इन्द्रियोंके विषयसे उत्पन्न हुए उपयोगकी ओर नहीं होती और न कषायोंको उत्पत्ति होती है । तथा जो अपने इष्ट विषयमें चित्तको बार-बार स्थापित करता है और अनिष्टसे चित्तको हटाता है उसका चित्त अपने वशमें रहता है । क्षपक जानता है कि यदि मैं अशुभ ध्यानमें लगा तो रत्नत्रयसे च्युत हो जाऊँगा। इन कारणोंसे वह शुभ ध्यान करता है ॥१७००॥ आगे ध्यानकी सामग्री कहते हैं गा०-टो०-बाह्य द्रव्यको देखनेकी ओरसे आँखोंको किञ्चित् हटाकर अर्थात् नाकके अग्र भागपर दृष्टिको स्थिर करके, एक विषयक परोक्षज्ञानमें चैतन्यको रोककर शुद्ध चिद्रूप अपनी आत्मामें स्मृतिका अनुसन्धान करे । गाथामें 'निरुद्ध दृष्टि' पद है। यहाँ दृष्टि में निमित्त चैतन्यमें दृष्टि शब्दका प्रयोग किया है। और स्मृति शब्दसे श्रुतज्ञानके द्वारा जाने गये अर्थका स्मरण लिया है। अर्थात् दृष्टिको नाकके अग्रभागमें स्थापित करके किसी एक परोक्ष वस्तु विषयक १. चैतन्यदृष्टि निमित्ते शब्दोऽत्र युक्तः -अ० आ० । -चैतन्यः दृष्टिनिमित्ते चैतन्ये दृष्टिशब्दो मूलारा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy