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________________ विजयोदया टीका ७५३ निरोधो ध्यानम्' [त. सू० ९।२७] इति चेत् षट्सु संहननेष्वाद्यं त्रितयं संहननं च वज्ररिषभनाराचसंहननं, वज्रनारासंहननं, नाराचसंहननमिति । तेषु त्रिषु एक संहननं यस्य स उत्तमसंहननस्तस्य एकमग्रं मुखमस्येत्येकाग्रे यश्चिन्तानिरोधः स ध्यानमित्युच्यते । ननु चिन्तानिरोधः चिन्ताया अभावस्तस्य का एकमुखता, कथं वा कर्मणां भावे अभावे च. निमित्तता । आतरौद्रयोरशुभकर्मनिमित्ततेष्यते । इतरयोस्तु शुभकर्मणां निमित्तता निर्जरायाश्च हेतुतेष्टा । अत्रोच्यते-न निरोधशब्दोऽत्राभाववाची किंतु रोधवचनो यथा मूत्रनिरोध इति । ननु च परिस्पन्दवतो निरोधो भवति । चिन्तायास्तु को निरोध इत्यत्रोच्यते । केचित्प्रवदन्ति' नानाविलम्बनेन चिन्ता परिस्पंदवती तस्या एकस्मिन्नने नियमश्चिन्तानिरोध इति त इदं प्रष्टव्याः । नानार्थाश्रया चिन्ता सा कथमेकत्रव प्रवर्तते ? एकत्रैव चेत् प्रवृत्ता नानार्थावलम्बनं परिस्पन्दं नासादयतीति निरोधवाचो युक्तिरसंगता, 'तस्मादेवमत्र व्याख्यानं चिन्ताशब्देन चैतन्यमुच्यते तच्च चैतन्यमन्यमन्यं वार्थमवगच्छता ज्ञानपर्यायरूपेण वर्तत' इति परिस्पन्दवत्तस्य निरोधो नाम एकत्रैव विषये प्रवृत्तिस्तथा हि य एकत्रव वर्तते स तत्र निरुद्ध इति भण्यते । उत्तमसंहननप्रयोगादेवातरौद्रयोरनुत्तमसंहननेषु तिर्यङ्मानवेषु प्रवृत्तिन स्यात् । तेन तद्धयानावलम्बनो गतिविभागो न स्यात्तेषामनुभवविरोधश्चेदानींतनानामपि तयोर्वत्तेः सूत्रान्तरविरोधश्च "तदविरतदेश कहते हैं। छह संहननोंमेंसे आदिके तीन संहनन वज्रर्षभ नाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन और नाराच संहनन उत्तम है । इनमेंसे एक संहनन जिसके हो उसे उत्तम संहनन कहते हैं । उसके एक है अन अर्थात् मुख जिसका उस एकाग्रमें जो चिन्ताका निरोध है वह ध्यान है। शङ्का-चिन्ता निरोधका अर्थ होता है चिन्ताका अभाव । अभाव एक मुख कैसा ?' तथा अभाव कर्मो के भाव या अभावमें निमित्त कसे हो सकता है ? आगममें आर्तध्यान और रौद्रध्यानको अशुभ कर्मो के आस्रवबन्धमें निमित्त कहा है। तथा धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानको शुभ कार्यों में निमित्त कहा है तथा निर्जराका भी हेतु कहा है। समाधान-चिन्ता निरोधमें निरोध शब्दका अर्थ अभाव नहीं है किन्तु उसका अर्थ है रोकना । जैसे मूत्रनिरोध अर्थात् मूत्रको रोकना । शङ्का-जिसमें हलन चलन होता है उसका निरोध होता है चिन्ता का निरोध कैसा? समाधान-कुछ आचार्य कहते हैं, नाना अर्थों का अवलम्बन करनेसे चिन्ता हलन चलन रूप होती है । उसको एक विषयमें नियमित करना चिन्ता निरोध है। उनसे यह पूछना है कि जब चिन्ता नाना अर्थो का आश्रय लेनेवाली है तो वह एक ही स्थानमें कैसे रुक सकती है ? यदि वह एक ही स्थानमें रुक सकती है तो नाना अर्थो के अवलम्बन रूप परिस्पन्द वाली नहीं हो सकती। इसलिये उसका निरोध कहना असंगत है। इसलिये चिन्तानिरोधका अर्थ ऐसा करना चाहिये-चिति धातुसे चिन्ता शब्द बना है उसीसे चैतन्य भी बना है। अतः चिन्ता शब्दसे यहाँ चैतन्य कहा है। वह चैतन्य अन्य-अन्य पदार्थो को जानते हुए ज्ञानपर्याय रूपसे वर्तन करता है अतः वह परिस्पन्द वाला है। उसका निरोध अर्थात् एक ही विषयमें प्रवृत्ति। क्योंकि जो एक ही विषयमें प्रवृत्ति करता है उसे वहीं निरुद्ध कहा जाता है। शङ्का-ध्यानके लक्षणमें 'उत्तम संहनन' विशेषणका प्रयोग करनेसे अनुत्तम संहननवाले तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें आर्तध्यान और रौद्रध्यान नहीं हो सकेंगे। ऐसा होनेसे उन ध्यानोंको लेकर जो गतिका विभाग किया है वह नहीं बनेगा। तथा ऐसा कहना अनुभवसे भी विरुद्ध है १. सर्वार्थसिद्धि ९।२७ । २. द्रष्टव्याः अ, आ० । ३. चितिशब्देन-अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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