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________________ विजयोदया टीका पुचकदमज्झ कम्मं फलिदं दोसो ण इत्थ अण्णस्स । इदि अप्पणो पओगं णच्चा मा दुक्खिदो होहि ॥१६२४॥ 'पुवकदमझ कम्म' पूर्वकृतं मदीयं कर्म, 'फलिदं' फलितं । 'दोसो ण एत्थ अण्णस्स' दोषो नवान्यस्य इति । 'अप्पणो पओगं 'गच्चा' ज्ञात्वा । 'मा दुक्खिदो होहि' मा कृथा दुःखं ॥१६२४॥ जदिदा अभदपुव्वं अण्णेसिं दुक्खमप्पणो चेव । जादं हविज्ज तो णाय होज्ज दुक्खाइदुजुत्तं ।।१६२५।। 'जदिदा' यदि तावत् । दुःखमन्येषां अभूतपूर्व । 'अप्पणो चेव'. आत्मन एव 'जादं हविज्ज' 'जातं भवेत्' 'तो णाम होज्ज दुक्खाइदु जुत्तं' । ततो नाम दुःखं कर्तुं युक्तं ॥१६२५।। सव्वेसिं सामण्णं अवस्सदायव्वयं करं काले । णाएण य को दाऊण णरो दुक्खादि विलवदि वा ।।१६२६।। 'सर्वेसि सामण्णं' सर्वेषां भव्यानां श्रामण्यं । 'काले' कर्मविनाशनकाले । 'अवस्स दायव्वयं' अवश्य दातव्यं । यस्मात्तस्मात । 'करं' करशब्दवाच्यं 'दाऊण' दत्वा । 'णाएंण य' न्यायेन च 'को जरो दुक्खदि विलववि वा' को नरो दुःखं करोति विलपति वा ॥१६२६॥ सव्वेसिं सामण्णं करभूदमवस्समाविकम्मफलं । इण मज्ज मेत्ति णच्चा लभसु सदि तं घिदि कुणसु ॥१६२७।। 'सर्वसि' सर्वेषां विनेयानां । 'सामण्णं करभूदं' श्रामण्यं करभूतं । 'अवस्सभाविकम्मफलं' अवश्यभाविकर्मफलं । 'इणमज्जमेदि' इदं श्रामण्यं अद्य करभूतं ममेति । 'गच्चा' ज्ञात्वा । 'लभसु सदि' स्मृति प्रतिपद्यस्व । 'तं' त्वं 'धिवि कुणसु' धृतिं कुरु ।।१६२७॥ अरहंतसिद्धकेवलि अविउत्ता सव्वसंघसक्खिस्स । पच्चक्खाणस्स कदस्स भंजणादो वरं मरणं ॥१६२८।। गा-यह मेरे पूर्वकृत कर्मों का फल है। इसमें किसी दूसरेका दोष नहीं है। अतः इसे अपना ही प्रयोग जानकर दुःखी मत होओ ॥१६२४।। गा०-हे क्षपक ! यदि यह दुःख दूसरोंको पहिले कभी नहीं हुआ और तुमको ही हुआ होता तो दुःख करना युक्त था ॥१६२५।। गा०-कर्मो के विनाशका समय आनेपर सभी भव्य जीवोंको मुनिपद अवश्य धारण करना होता है। इसलिये इसे 'कर' कहा है । इस करको न्यायपूर्वक देकर कौन मनुष्य दुःखी होता है या विलाप करता है ।।१६२६॥ गा०-सभी मोक्षमागियोंके लिये यह श्रामण्य अवश्य भाविकर्मफल होनेसे करके समान देय है अर्थात् सभीको मुनिपद धारण करना होता है। आज यह श्रामण्य मेरे लिये करके समान देय है ऐसा जानकर अपने स्वरूपका स्मरण करो और धैर्य धारण करो ॥१६२७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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