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________________ विजयोदया टीका एवं तुझं उवएसामिदमासाइदत्तु को णाम । बीहेज्ज छहादीणं मरणस्स वि कायरो वि णरो ॥१४८०॥ 'एवं तुझं' एवं भवतामुपदेशामृतमास्वाद्य को नाम विभेति कातरोऽपि नरः क्षुधादीनां मृत्योवा ॥१४८०॥ किं जंपिएण बहुणा देवा वि सइंदिया महं विग्छ । तुम्हं पादोवग्गहगुणेण कार्यु ण अरिहंति ।।१४८१।। 'कि जंपिएण बहुणा' किंबहुना जल्पितेन देवा अपि शतमखप्रमुखा मम विघ्नं कर्तुं असमर्थाः भवत्पादोपग्रहणगुणेन ॥१४८१॥ किं पुण छुहा व तण्हा परिस्समो वादियादि रोगो वा । काहिंति ज्झाणविग्धं इंदियविसया कसाया वा ।। १४८२।। 'किं पुण' किं पुनः कुर्वन्नि ध्यानस्य विघ्नं क्षुधा, तृपा वा, परिश्रमो वा, धातिकादिरोगा वा, इन्द्रियाणां विषयाः, कपाया वा ॥१४८२॥ ठाणा चलेज्ज मेरू भूमी ओमच्छिया भविस्सिहिदि । ण य हं गच्छमि विगदि तुज्झं पायप्पसाएण ॥१४८३।। 'ठाणा चलिज्ज' स्वस्मात्स्थानाच्चलिष्यति मेरुः । भूमिः परावृतमस्तका भविष्यति । नाहं विकृति गमिष्यामि भवतां पादप्रसादेन ॥१४८३॥ 'एवं खवओ संथारगओ खवइ विरियं अगृहंतो। देदि गणी वि सदा से तह अणुसहिँ अपरिदंतो ।।१४८४॥ समाप्तमनुशासनम् ॥१४८४।। गा०-आपके इस प्रकारके उपदेशामृतको पीकर कौन कायर भी मनुष्य भूख प्यास और मृत्युसे डरेगा ॥१४८०॥ गा०-अधिक मैं क्या कहूँ, आपके चरणोंके अनुग्रहसे इन्द्रादि प्रमुख देव भी मेरी आराधनामें विघ्न नहीं कर सकते ॥१४८१।। गाo-तब भूख, प्यास, परिश्रम, वातादि जन्य रोग, अथवा इन्द्रियोंके विषय और कषाय ध्यानमें विघ्न कैसे कर सकते हैं ॥१४८२॥ गा०-सुमेरु अपने स्थानसे विचलित हो जाये और पृथ्वी उलट जाये किन्तु आपके अनुग्रहसे मैं विकारसे विचलित नहीं होऊँगा ।।१४८३।। गा०-इस प्रकार क्षपक संस्तर पर आरूढ़ होकर अपनी शक्तिको न छिपाकर पूर्वोपाजित अशुभ कर्म की निर्जरा करता है और आचार्य भी बिना विरक्त हुए उसे सदा सत् शिक्षा देता है ॥१४८४|| १. एतां टीकाकारो नेच्छति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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