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________________ ६७८ भगवती आराधना इह य परत्त य लोए दोसे बहुए य आवहदि कोघो । इदि अप्पणो गणित्ता परिहरिदव्वो हवइ कोधों ।।१४२१।। स्पष्टा उत्तरगाथा ।।१४२१॥ क्रोधजयोपायभूतान्परिणामानुपदर्य मानप्रतिपक्षपरिणामं निरूपयति को इत्थ मज्झ माणो बहुसो णीचत्तणं पि पत्तस्स । उच्चत्ते य अणिच्चे उवडिदे चावि णीचत्ते ॥१४२२॥ 'को इत्थ मज्ज्ञ माणो' कोऽत्रासकृत्प्राप्ते 'ज्ञानादिकरुन्नतत्वे गर्वो मम बहुशो ज्ञानकुलरूपतपोद्रविणप्रभुत्वैरुन्नततां प्राप्तस्य प्राप्तेऽप्युन्नतत्वे अनवस्थायिनि सति उपस्थिते चोत्तरकालनीचत्वे ॥१४२२।। अधिगेसु बहुसु संतेसु ममादो एत्थ को महं माणो । को विब्भओ वि बहुसो पत्ते पुन्वम्मि उच्चत्ते ॥१४२३।। स्पष्टा ॥१४२३॥ उत्तरगाथा जो अवमाणणकरणं दोसं परिहरइ णिच्चमाउत्तो । सो णाम होदि माणी ण दु गुणचत्तण माणेण ॥१४२४।। 'जो अवमाणणकरणं' योऽवमानकरणं दोषं परिहरति नित्यमुपयुक्तः स मानी भवति । न तु भवति मानी गुणरिक्तेन मानेन ॥१४२४॥ इह य परत्तय लोए दोसे बहुगे य आवहदि माणो। इदि अप्पणो गणित्ता माणस्स विणिग्गहं कुज्जा ॥१४२५।। गा०-क्रोध इस लोक और परलोकमें बहुत दोषकारक है ऐसा जानकर क्रोधका त्याग करना चाहिए ।।१४२१॥ क्रोधको जीतनेके उपायभूत परिणामोंको बतलाकर मानके प्रतिपक्षी परिणामोंको कहते हैं गा०-टी०-ज्ञान, कुल, रूप, तप, धन, प्रभुत्व आदिमें मैं ऊँचा भी होऊँ, तो उसका गर्व कैसा, क्योंकि अनेक बार मैं इनमें नीचा भी हो चुका हूं। उच्चता और नीचता ये दोनों अनित्य हैं ।।१४२२।। गा०-इस लोकमें बहुतसे मुझसे भी ज्ञानादिमें अधिक हैं इनका मुझे अभिमान कैसा? तथा पूर्व जन्मोंमें मैं यह उच्चता अनेक बार प्राप्त कर चुका हूँ तब इनके प्राप्त होने पर आश्चर्य कैसा? ॥१४२३।। जो सदा मन लगाकर अपमान करने रूप दोषका त्याग करता है अर्थात् किसीका अपमान नहीं करता वह मानी होता है । गुण रहित मानसे मानी नहीं होता ।।१४२४।। १. ज्ञानादेकरत्नत्रयतत्वं-आ० मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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