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________________ विजयोदया टोका ६५९ 'सद्देण मओ' शब्देन मृगः बाष्पच्छेद्यसरससुरभितृणाग्रग्रासेन, मृदुपवनानीतशैत्यस्फटिकसंकाशपानीयपानेन च पुष्टमूतिरन्तःकरणमिव लघुतरप्रयाणो हरिणो व्याधकलगीतश्रवणेन सुखाकूणितलोचनः, दुष्टयमदंष्ट्रासमाननिशितविशिखावलीभिन्नतनुर्जहाति प्रियतमान्प्राणान् । 'रूवेण पदंगो च' एककलिकाकारप्रदीपरूपेण जनितानुरागः पतंगो दीपाचिषि भस्मसाद्धावमुपयाति । 'वणगजो वि फरिसेण' वनगजश्च विलासिनीहृदयमिव दुष्प्रवेशासु, संसृतिरिव महतीषु अरण्यानीषु, विपद इव दुरतिक्रमणीयासु सल्लकीतरुणतरुशाखाहारः, रम्यगिरिनदीविपुल हदेषु, स्वेच्छापानतरुणनिमज्जनोन्मज्जनरुपगतप्रीतिः, अनुकूलाने ककरिणीकदम्बकेनानुगम्यमानो वासिताविशालजवनस्पर्शनोपनीतप्रीतिर्मदकलो विचेतनो रागबहलतिमिरपटलावगुण्ठितलोचनो महति गर्ते निपतितः परं व्यसनमवगाहते । 'मच्छो' मत्स्यः युवजनमनः 'सरोनपायिविलासिनी विलोचनविभ्रमविलम्बनोद्यतः स्वल्पाहाररसलोलुपो विपदमाश्ववशः प्रयाति । विचित्रसुरभिप्रसूनप्रकररजोऽङ्गरागो भ्रमरः विषपादपकुसुमगन्धेनापहृतप्रियतमप्राणो भवति । एवमेते दोषान्प्रापिताः ॥१३४७॥ तिरश्चां दुःखं प्रतिपाद्य विषयरागजनितं मनुजगतौ दर्शयति 'इदि पंचहि पंच हदा सदरसफरिसगंधरूवहिं । इक्को कह ण हम्मदि जो सेवदि पंच पंचेहिं ॥१३४८॥ गा०-टी०-वनमें हिरण मुखके वाष्पसे टूटनेवाले सरस सुगन्धित तृणोंके अग्रभागोंको खाकर और कोमल वायुके द्वारा शीतल किये गये स्फटिकके समान स्वच्छ जलको पीकर पुष्ट होता है। उसकी गति मनसे भी तीव्र होती है। वह व्याधके मनोहर गीतको सुनकर सुखसे अपनी आँखें मूंद लेता है। और दुष्ट यमराजकी दाढ़के समान तीक्ष्ण विशाल बाणोंके द्वारा छेदा जाकर अत्यन्त प्रिय प्राणोंको त्याग देता है। एक कलिकाके आकार दीपकके रूपसे अनुराग करनेवाला पतंगा दीपकको लौमें जलकर भस्म हो जाता है। वनका हाथी स्त्रीके हृदयकी तरह जिसमें प्रवेश करना कठिन है, जो संसारकी तरह महान् है और विपत्तिकी तरह जिसे लांघना अशक्य है ऐसे महान् वनमें सल्लकीके तरुण वृक्षोंकी शाखा खाता है, रमणीक पहाड़ी नदी और बड़े-बड़े तालाबोंमें स्वेच्छापूर्वक जल पीता है, अवगाहन करता है, डुबकी लगाता है, अनेक अनुकूल हथिनियोंका समह उसके पीछे चलता है. हथिनीके विशाल जघन भागके स्पर्शनमें अनुरक्त होकर मदमत्त हो, रागकी अधिकतारूपी अन्धकारके पटलसे आँखें बन्द कर लेता है और महान् गर्तमें गिरकर कष्ट भोगता है । युवा पुरुषोंके मनरूपी सरोवरमें विलास करनेवाली स्त्रियोंके लोचनके हावभावका अनुकरण करनेवाला मच्छ थोड़ेसे भोजनकी लोलुपतावश शीघ्र ही विपत्तिमें पड़ जाता है । अनेक प्रकारके सुगन्धित फूलोंके समूहको रजसे आवेष्ठित भौंरा विषवृक्षके फूलकी गन्धसे प्राण खो देता है। इस प्रकार एक एक इन्द्रियके वश होकर ये कष्ट उठाते हैं ॥१३४७॥ तिर्यञ्चोंका विषयरागसे उत्पन्न दुःख कहकर मनुष्य गतिमें कहते हैं गा०-इस प्रकार शब्द, रस, स्पर्श, गन्ध, रूप इन पाँच विषयोंके द्वारा पाँच जीव अपने 'प्राण गँवाते हैं। तब जो एक ही पुरुष पाँचों इन्द्रियोंके द्वारा पाँचों विषयोंका सेवन करता है वह प्राण क्यों न गंवायेगा ॥१३४८॥ १. मस्सारो-आ० । २. एतां टीकाकारो नेच्छति । ८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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