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________________ विजयोदया टीका तीव्रत्वात् । 'चरणं' चारित्रं, 'तणं व' तृणमिव, 'पस्संतो' पश्यन् रागादयोऽप्यशुभपरिणामास्तत्त्वज्ञानस्य प्रतिबन्धकास्तेन सकलुषं ज्ञानचारित्रं निस्सारमिव पश्यति. तत एव तत्राकृतादरः चारित्रादपैतीति निर्द्धर्मतास्य । ततः पार्श्वस्थसेवासु प्रयतते । 'पासत्थो' ॥१२९४|| इदियचोरपरद्धा कसायसावदभएण वा केई । उम्मग्गेण पलायंति साधुसत्थस्स दूरेण ॥१२९५॥ 'इदियचोरपरद्धा' इन्द्रियचोरकृतोपद्रवाः । 'कसायसावदभएण वा केई' कषायव्यालमृगभयेन वा केचित् । 'उम्मगेण' उन्मार्गेण 'पलायंति' पलायनं कुर्वन्ति । 'साधुसत्थस्स दूरेण' साधुसार्थस्य दूरात् ॥१२९५॥ तो ते कुसीलपडिसेवणावणे उप्पधेण धावंता । सण्णाणदीसु पडिदा किलेससोदेण वुढ्ढंति ॥१२९६॥ 'तो' ततः साधुसार्थादूरादपसृताः, 'कुसोलपडिसेवणावणे' कुशीलप्रतिसेवनावने, 'उप्पथेण' उन्मार्गेण । 'घावंता' धावन्तः । 'सण्णाणदीसु' संज्ञानदीषु । 'पडिदा' पतिताः । 'किलेससोदेण' क्लेशस्रोतसा। वुढ्ढन्ति' ते बुडन्ति ॥१२९६॥ सण्णाणदीसु ऊढा वुढढा थाहं कहंपि अलहंता । तो ते संसारोदधिमदंति बहुदुक्खभीसम्मि ॥१२९७।। ‘सण्णाणवीसु ऊढा' संज्ञानदीभिराकृष्टाः संतो निर्मग्नाः 'थाह' अवस्थानं 'कहिपि' क्वचिदपि 'अलहंता' अलभमानाः । 'तो' पश्चात् । 'संसारोदधिमदंति' संसारसागरं प्रविशन्ति । 'बहुदुक्खभीसम्मि' बहुदुःखभीष्मं ॥१२९७॥ आसागिरिदुग्गाणि य अदिगम्म तिदंडकक्खडसिलासु । ऊलोडिदपब्भट्टा खुप्पंति अणंतयं कालं ॥१२९८॥ परिणामोंके तीव्र होनेसे वह चारित्रको तृणके समान मानता है। क्योंकि रागादिरूप अशुभ परिणाम तत्त्वज्ञानके प्रतिबन्धक होते हैं। अतः उसका ज्ञान दूषित होनेसे वह चारित्रको सारहीन मानता है । इसीसे वह उसमें आदरभाव न रखनेके कारण चारित्रसे च्युत होता है। इसीसे उसे चारित्र भ्रष्ट कहा है। चारित्र भ्रष्ट होकर वह पार्श्वस्थ मुनियोंकी सेवामें लग जाता है। यह पार्श्वस्थ मुनिका कथन है ॥१२९४।। ___ गा०-अथवा कोई मुनि इन्द्रियरूपी चोरोंसे पीड़ित होकर कषायरूप हिंसक प्राणियोंके भयसे साधु संघसे दूर होकर उन्मार्गमें चले जाते हैं ॥१२९५।। गा०–साधु संघसे दूर होकर वे मुनि कुशील प्रतिसेवनारूप वनमें उन्मार्गसे दौड़ते हुए . आहार भय मैथुन परिग्रहरूप संज्ञानदीमें गिरकर कष्टरूपी प्रवाहमें पड़कर डूब जाते हैं ।।१२९६॥ गा०-संज्ञारूप नदीमें डूबनेपर उन्हें कहीं भी ठहरनेका स्थान नहीं मिलता अत: वे बहुत दुःखोंसे भयानक संसार समुद्र में प्रवेश करते हैं ॥१२९७।। गा०-संसार समुद्रमें प्रवेश करनेपर आशारूपी पहाड़ोंको लांघते हुए मन-वचन-कायकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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