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________________ भगवती आराधना एवं सति वैचित्र्ये पर्ययाशङ्का? यच्चोक्तं साधकानुग्रहाधिकारे सिद्धात्मनामेव मङ्गलत्वेनाधिकारो युक्त इति । इदं पर्यनुयोज्योऽयं श्रुतसाधकार्थमुत (?) यद्येवं सकलस्य श्रुतस्य सामायिकादेर्लोकबिन्दुसारान्तस्यादौ मङ्गलं कुर्वद्भिर्गणधरैः 'णमो अरहंताणमित्यादिना कथं पञ्चानां नमस्कारः कृतः ?. तेन सूत्रविरोधिनी व्याख्या अनेनापि च सूत्र विरुध्यते, 'वंदित्ता अरहंते' इति अर्हतामुपादानात् । तेऽपि सिद्धा इति चेत् पृथगुपादानानर्थक्यं । अथैकदेशसिद्धास्त इति पृथगुपात्ताः आचार्यादयोऽपि किन्नोपात्तास्तेषामप्येकदेशसिद्धतास्ति । एकदेशसिद्धतायां अर्हतामप्याराधकत्वे सत्युपादानं स्वव्याख्याविरोधमाधत्त इति ।। 'सिद्धे' सिद्धान् "जगप्पसिद्ध' जगति प्रसिद्धान् ‘चदुठिवधारणाफलं' चतुर्विधाराधनाफलं पत्ते' प्राप्तान्, वंदित्ता वन्दित्वा 'अरहते' 'वोच्छं' वक्ष्यामि 'आराधणं' आराधना 'कमसो' क्रमशः ।। सिद्धशब्दस्य चत्वारोऽर्थाः नामस्थापनाद्रव्यभावा इति । तत्र नामसिद्धः क्षायिकं सम्यक्त्वं, ज्ञानं, दर्शनं, वीर्य, सूक्ष्मतां, अतिशयवतीमवगाहनां, सकलवाधारहिततां चानपेक्ष्य सिद्धशब्दप्रवृत्तेनिमित्तं कस्मिश्चित्प्रवृत्तः सिद्धशब्दः । ननु स्वरूपनिष्पत्तिः सिद्धशब्दस्य प्रवृत्तेनिमित्तं न सम्यक्त्वादय इति चेत् सत्यं, व्यावणितयत्किचिन्न्यूनात्मरूपनिष्पत्तिनिमित्तत एष्यत एव । पूर्वभावप्रज्ञप्तिनयापेक्षया चरमशरीरानुप्रविष्टो य आत्मा क्षीरानु इस प्रकारकी विविधताके होते हुए विपरीतता की-अर्हन्तोंसे पहले सिद्धोंको क्यों नमस्कार किया-इस प्रकारकी आशङ्का कैसी ? तथा यह जो कहा है कि साधकोंके अनुग्रहके लिए रचे गये इस ग्रन्थमें मंगल रूपसे सिद्धोंका ही अधिकार उचित है। इस विषयमें यह प्रश्न है कि ये साधक क्या श्रुत के हैं ? यदि ऐसा है तो सामायिकसे लेकर लोकबिन्दुसार पर्यन्त सकल श्रुतके आदिमें मंगल करनेवाले गणधर देवने 'णमो अरहंताणं' इत्यादि रूपसे पांचोंको नमस्कार क्यों किया? इसलिए आपकी व्याख्या सूत्र विरोधिनी है। तथा इसी गाथासूत्रसे भी विरुद्ध है; क्योंकि इसी गाथामें 'वंदित्ता अरहते' कहकर अर्हन्तोंका भी ग्रहण किया है । यदि कहोगे कि वे भी सिद्ध हैं तो उनका पृथक् ग्रहण व्यर्थ है। यदि कहोगे कि वे एकदेश सिद्ध हैं इसलिए उनका पृथक् ग्रहण किया है तो आचार्य आदिका ग्रहण क्यों नहीं किया; क्योंकि वे भी एकदेश सिद्ध हैं । एकदेश सिद्ध होने पर अर्हन्तोंका भी आराधक रूपसे ग्रहण अपनी ही व्याख्याके विरुद्ध जाता है। अस्तु, गा०—'जगत्में प्रसिद्ध और चार प्रकारकी आराधनाके फलको प्राप्त सिद्धों और अर्हन्तोंको नमस्कार करके क्रमसे आराधनाको कहूँगा ॥१॥ टीका-सिद्ध शब्दके चार अर्थ हैं-नाम सिद्ध, स्थापना सिद्ध, द्रव्य सिद्ध और भावसिद्ध । क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, वीर्य, सूक्ष्मता, अतिशयवती अवगाहना और सकलबाधारहितता अर्थात् अव्याबाधत्व, ये गुण सिद्ध शब्दकी प्रवृत्तिमें निमित्त हैं अर्थात् जिनमें ये गुण होते हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं। इन गुणोंकी अपेक्षा न करके किसीमें प्रवृत्त सिद्ध शब्द नाम सिद्ध है। शंका-सिद्ध शब्दको प्रवृत्तिका निमित्त उसके स्वरूपकी निष्पत्ति है, सम्यक्त्व आदि गुण नहीं ? ___समाधान-आपका कथन यथार्थ है, पूर्व शरीरके आकारसे किंचित् कम जो आत्म रूप कहा है सिद्ध का, उसकी निष्पत्तिके निमित्तको हम स्वीकार करते हैं। पूर्व भाव प्रज्ञापन नयकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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