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________________ भगवती आराधना नमस्कारो विपर्ययश्च । तत्कि कृतं वैधय॑मिति ? अत्रोच्यते-अन्यथाप्रवृत्तावस्ति कारणं । इह द्विप्रकाराः सिद्धसाधकभेदेन जीवाः । अर्हता सिद्धानां चाप्ताराधनाफलत्वात्, आचार्यादीनां त्रयाणां साधकानामनुग्रहायेदं शास्त्र प्रस्तूयत इति सिद्धानां मङ्गलत्वेनोपादानं युक्तं, नेतरेषामधिक्रियमाणत्वात्तेषामिति भाष्यपरिहारौ केषांचित् । तावसङ्गताविव लक्ष्यते । तत्र चाद्यस्य निवेद्यतेऽयुक्तता। किमर्थं नमस्कारः क्रियते शास्त्रादिषु ? अविघ्नप्रसिद्धये। कथं निहन्ति विघ्नमसौ ? स हि वक्तुः श्रोतुर्वा भवेत् ? उभयस्यापि निवन्धनमन्तरायः, 'विघ्नकरणमन्तरायस्य' [त. सू.] इति वचनात् । पञ्चप्रकारोऽसौ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणां विघ्नकारणभेदेन, तत्र वक्तुर्दानान्तरायस्सम्पादयति प्रत्यूह, त्रिविधस्य हि दानस्य प्रतिबाधको दानान्तरायः । ज्ञानलाभं विहन्ति श्रोतु भान्तरायस्तदायत्तो विघ्नः कथं तस्मिन्सति न भवेत् सत्यपि नमस्कारे, यथा बीजसलिलवसुन्धराधर्मरश्मिकरसंघाताधीनजन्मा ब्रीह्याद्यङ्करः स्वहेतुसामग्यां भवत्यन्यूनायां सन्निहितेऽपि सालतमालादौ तथेहापि । अथैवं षे अन्तरायोऽशुभप्रकृतिः । स च शुभपरिणामोन्मलितरसप्रकर्षः स्वकार्य निष्पादयितु नालमिति । यद्येवं शुभपरिणाममात्रस्यानोपयोगस्तथा सति सिद्धादिगुणानुरागः सर्व एवोपयोगी 'विघ्नतिरप्रारम्भमें अरहन्तोंको ही ग्रहण किया है। किन्तु यहाँ सिद्ध और अरहन्त दो का ही ग्रहण किया है और वह भी विपरीत क्रमसे किया है अर्थात् सिद्धोंका ग्रहण प्रथम और अरहन्तोंका पश्चात् किया है। इस प्रकारको विपरीतताका क्या कारण है ? इसका कोई इस प्रकार उत्तर देते हैं अन्य प्रकारसे प्रवृत्ति करनेका कारण है। यहाँ सिद्ध और साधकके भेदसे जीवोंके दो प्रकार हैं। अरहन्त और सिद्ध तो आराधनाका फल प्राप्त कर चुके हैं अतः आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन साधकोंके अनुग्रहके लिये यह शास्त्र रचा गया है. इसलिये सिद्धोंका मंगल रूपसे ग्रहण यक्त है. आचार्य आदिका नहीं. क्योंकि उन्हीं के लिये यह ग्रन्थ रचा गया है। ऐसा कोई आचार्य भाष्य और उसका परिहार करते हैं । किन्तु वे दोनों ही असंगत जैसे प्रतीत होते हैं। उनमेंसे प्रथमकी अयुक्तताके सम्बन्धमें निवेदन करते हैं शास्त्रादिमें नमस्कार क्यों किया जाता है ? निर्विघ्नताकी प्रसिद्धिके लिये । वह विघ्नोंको कैसे दूर करता है ? विघ्न वक्ता या श्रोताको होता है । दोनोंका भी कारण अन्तराय कर्म है। तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा हैं-'विघ्न करनेसे अन्तराय कर्मका आस्रव होता है ।' दान, लाभ, उपभोग और वीर्यके विघ्न करने में कारण होनेके भेदसे अन्तरायके पाँच भेद हैं। उनमेंसे दानान्तराय वक्ताके दानमें विघ्न करता है क्योंकि दानान्तराय तीन प्रकारके दानमें बाधक होता है। लाभान्तराय श्रोताके ज्ञान लाभमें रुकावट डालता है, क्योंकि जब विघ्न अन्तराय कर्मके अधीन है तो उसके होते हुए विघ्न क्यों नहीं होगा, भले ही नमस्कार किया गया हो। जैसे धान्य आदिके अंकुरकी उत्पत्ति बीज, जल, पृथ्वी और सूर्यको किरणोंके समूहके अधीन है । अतः अपनी कारण सामग्रीके परिपूर्ण होनेपर उसकी उत्पत्ति साल, तमाल आदिके रहते हुए भी अवश्य होती है। उसी तरह यहाँ भी जानना। यदि आप कहें कि अन्तराय अशुभ कर्म है, शुभ परिणामके द्वारा उसकी अनुभाग शक्ति क्षीण कर दिये जानेपर वह अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता, तब तो यहाँ शुभपरिणाम मात्र उपयोगी हुआ। और ऐसा होनेपर विघ्नोंको दूर करनेकी इच्छा करने वालेको सिद्ध आदिके गुणोंमें अनुराग आदि सब उपयोगी हुए। तब विचारशील पुरुषके द्वारा अपनाया गया क्रम १. विघ्ननिराचि-मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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