SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 677
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१० भगवती आराधना यनिक्षिप्यते यत्र यदादीयते यतस्तदुभयं प्रतिलेखनायोग्यं न वेति विलोक्य पश्चात्कृतमार्जनं पुनरवलोक्य निक्षिपेद् गृहीयाहा । एषा आदाननिक्षेपणसमितिः । ईर्यासमितिनिरूपितैव तथा मनोगुप्तिश्च । स्फुटतरप्रकाशावलोकितस्य अन्नस्य भोजनमित्यहिंसावतभावनाः पञ्च ॥१२००।। द्वितीयव्रतभावना उच्यन्ते कोघभयलोभहस्सपदिण्णा अणुवीचिभासणं चेव । विदियस्स भावणाओ वदस्स पंचेव ता होति ।।१२०१।। क्रोघभयलोभहास्यानां प्रत्याख्यानानि चतस्रः । 'अणुवीचिभासणं चेव' सूत्रानुसारेण च भाषणं । सत्या, मृषा, सत्यमृषा, असत्यमृषा चेति चतस्रो वाचः । तत्र सत्या असत्यभूषा वा व्यवहरणीया नेतरदद्वयं । क्रोधादीनामप्तत्यवचनकारणानां प्रत्याख्याने असत्यावाक्परिहृता भवति नान्यथा ॥१२०१॥ तृतीयव्रतभावना उच्यन्ते अणणुण्णादग्गहणं असंगबुद्धी अणुण्णवित्ता वि । एदावंतियउग्गहजायणमध उग्गहाणुस्स ॥१२०२।। 'अणणुण्णादग्गहणं' तस्य स्वामिभिरननुज्ञातस्य अग्रहणं ज्ञानोपकरणादेः । 'असंगबुद्धी अणुण्ण वित्ता वि' परानुज्ञां सम्पाद्य गृहीतेऽपि असक्तबुद्धिता । 'एदावंतिय 'उग्गहजायणं' एतत्परिमाणमिदं भवता दातव्यमिति प्रयोजनमात्रपरिग्रहः यावद्याचितो यावद्गृह्णामि इति न बुद्धिः कार्या । 'उग्गहाणुस्स' ग्राह्यवस्तुज्ञस्य इदं नहीं चाहिये। जो भोजन उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषसे दुष्ट है उसे नहीं खाना चाहिये । इस तरह नौ कोटियोंसे शुद्ध आहार ग्रहण करना एषणा समिति हैं। जो वस्तु जिस स्थानपर रखी जाय और जो वस्तु जिस स्थानसे उठाई जाये वे दोनों प्रतिलेखनाके योग्य हैं या नहीं, यह देखनेके पश्चात् पीछीसे उनको झाड़कर पुनः देखे और तब रखे या ग्रहण करे। यह आदान निक्षेपण समिति है। ईर्यासमिति पहले कही है और मनोगुप्ति भी कही है। अति स्पष्ट प्रकाशमें देखे गये अन्नका भोजन आलोकभोजन है । ये पाँच अहिंसावतकी भावना हैं ।।१२००॥ दूसरे सत्यव्रतकी भावना कहते हैं गा०-क्रोधका त्याग, भयका त्याग, लोभका त्याग, हास्यका त्याग और सूत्रके अनुसार बोलना ये पाँच सत्यव्रतकी भावना हैं। वचनके चार भेद हैं-सत्य, असत्य, सत्य असत्य तथा न सत्य न असत्य । इनमेंसे सत्य और अनुभय वचन बोलने योग्य हैं। शेष दो नहीं बोलने चाहिये। क्रोध आदि झूठ बोलने में कारण होते हैं। उनको त्याग देने पर असत्य वचनका त्याग हो जाता है अन्यथा नहीं होता ॥१२०१।।। तीसरे व्रतकी भावना कहते हैं गा०-टो०-ज्ञानोपकरण आदिके स्वामीकी स्वीकृतिके बिना ज्ञानोपकरण आदिको स्वीकार न करना, स्वामीकी स्वीकृति मिलने पर स्वीकार की गई वस्तुमें भी आसक्ति न होना, 'आपको इतना देना चाहिये' इस प्रकार जितनेसे प्रयोजन हो उतना ही ग्रहण करना, जितना माँगा है उतना ही ग्रहण करूँगा ऐसी बुद्धि नहीं रखनी चाहिये । जो ग्रहण करने योग्य वस्तुको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy