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________________ भगवती आराधना काचनीलनीरनिरन्तरवयपि नाम्बुना लिप्यते । निरन्तरनिचितजीवनिकायाकुलेऽपि जगति सञ्चरन्नपि मुनि लिप्यते' अप्रमत्ततया प्रवृत्तः पञ्चेसु समितिष्विति कथयति-- पउमणिपत्तं व जहा उदयेण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं । तह समिदीहिं ण लिप्पइ साधू काएसु इरियंतो ॥११९५॥ 'पउमणिपत्तं' इत्यनया गाथया-पद्मपत्रं यथा नोदकेन विलिप्यते स्नेहगुणसमन्वितं । तथा कायेसु शरीरेषु प्राणभृतां प्रवर्तमानोऽपि न लिप्यते साधुः समितिभिहेतुभूताभिः ॥११९५ ।। सरवासे वि पडते जह दढकवचो ण विज्झदि सरेहिं । तह समिदीहिं ण लिप्पइ साधू काएसु इरियंतो ॥११९६।। 'सरवासे वि पडते' शरवर्षेऽपि पतति सति च रणाङ्गणे यथा दृढकवचो न शरैभिद्यते, यथा समितिभिर्हेतुभूताभिनं लिप्यते कायेषु वर्तमानो मुनिः ॥११९६॥ जत्थेव चरइ बालो परिहारण्हू वि चरइ तत्थेव । बज्झदि पुण सो बालो परिहारण्हू वि मुच्चइ सो ॥११९७।। 'जत्थेव चरइ बालो' यौव क्षेत्रे चरति जीवपरिहारक्रमानभिज्ञः । परिहारहू बि' जीवबाधापरिहारक्रमज्ञोऽपि तत्रैव चरति । तथापि 'बज्झदि सो पुण बालो' बध्यते पुनरसौ ज्ञानबालश्चारिबालश्चासौ । 'परिहारण्हू' परिहारज्ञः । 'मुच्चई' मुच्यत कर्मलेपात् ॥१११७॥ उक्तमर्थमुपसंहरत्युत्तरगाथया तम्हा चेट्ठिदुकामो जइया तइया भवाहि तं समिदो। समिदो हु अण्णमण्णं णादियदि खवेदि पोराणं ॥११९८॥ जलसे लिप्त नहीं होता। पांचों समितियों में अप्रमादीरूपसे प्रवृत्ति करनेवाला मुनि भी निरन्तर जीव निकायोंसे भरे हए जगत में गमनागमन करते हुए पापसे लिप्त नहीं होता। यह कहते हैं गा०-जैसे स्नेह गुणसे युक्त कमलपत्र जलसे लिप्त नहीं होता। उसी प्रकार प्राणियोंके शरीरोंके मध्यमेंसे गमनागमन करते हुए भी साधु समितिका पालन करनेसे पापसे लिप्त नहीं होता ॥११९५॥ गा०-जैसे दृढ कवचसे युक्त योद्धा युद्धभूमिमें बाणोंकी वर्षा होते हुए भी बाणोंसे नहीं छिदता। उसी प्रकार षटकायके जीवोंके मध्यमें विचरण करता हुआ भी समितियोंके कारण हिंसा आदिसे लिप्त नहीं होता ॥११९६॥ गा०-जीवोंकी हिंसासे बचनेके उपायोंको न जाननेवाला जिस क्षेत्रमें विचरण करता है, जीवोंकी हिंसासे बचनेके उपायोंको जाननेवाला भी उसी क्षेत्रमें विचरण करता है । तथापि वह ज्ञान और चारित्रमें बालकके समान अज्ञ तो पापसे बद्ध होता है किन्तु उपायोंको जाननेवाला पापसे लिप्त नहीं होता बल्कि उससे मुक्त होता है ॥११९७।। आगे उक्त कथनका उपसंहार करते हैं१. प्यते अथ प्रमत्ततया प्रमत्तः पं-आ० ज० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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