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________________ विजयोदया टीका परिग्रहस्य त्यागजन्यसुखातिशयमिह जन्मनि प्राप्यं निर्दिशत्युत्तरगाथासव्वग्गंथ विमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य । जं पावइ पीयिसुहं ण चक्कवट्टी वि तं लहइ ।। ११७६ ।। 'सव्वगंथविक्को' परित्यक्ताशेषवाह्याभ्यन्तरग्रन्थः । 'सोदीभूवो' शीतीभूतः । 'पसण्णचित्तो य' प्रसन्नचित्तः सन् । 'जं पावदि पीदिसुहं' यत्प्राप्नोति प्रीत्यात्मकं सुखं । 'न चक्कवट्टी वि तं लभदि' चक्रवर्त्यपि तन्न लभेत ।। ११७६ ॥ चक्रवर्तिसुखस्य स्वल्पतायाः कारणमाचष्टे - रागविवागसतण्णादिगिद्धि अवितित्ति चक्कवट्टिसुहं । णिस्संगणिव्वुइसुहस्स कहं अग्घइ अनंतभागं पि ।।११७७।। रागविवागसत०हाइगिद्धि अवितित्ति चक्कवट्टिसुहं । रागो विपाकः फलमस्येति रागविपाकरूपं विषयसुखमासेव्यमानं रञ्जयति विषयेष्विति रागो विपाकः फलं सुखस्येत्युच्यते । सह तृष्णया वर्तते इति सतृष्णं, अतिशयेन गृद्धि काङ्क्षां जनयति इति अतिगृद्धि । न विद्यते तृप्तिरस्मिन्नित्यतृप्ति । यदेवंभूतं चक्रवतिसुखं 'निसंगणदिसुखस्स' निःसंगस्य यन्निर्वृतिसुखं 'तस्यानन्तभागमपि न प्राप्नोति ॥ ११७७ ॥৷ महाव्रतसंज्ञा अहिंसादीनां अन्वर्था इति दर्शयति पञ्चमहव्वयं । ५९१ साधेंति जं महत्थं आयरिदाई च जं महल्लेहिं । जं च महल्लाई सयं महव्वदाई हवे ताई ॥। ११७८ ।। 'सार्धेति जं महत्थं' साधयन्ति यस्मान्महाप्रयोजनं असंयमनिमित्तप्रत्यग्रकमं कदम्बक निवारणं महत्प्रयो आगे कहते हैं कि परिग्रहके त्यागसे अतिशय सुख इसी जन्म में प्राप्त होता है गा० - समस्त बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहको त्यागकर जो शीतीभूत होता है अर्थात् परिग्रह सम्बन्धी सब प्रकारकी चिन्ताओंसे मुक्त होनेसे अत्यन्त सुखमय होता है तथा प्रसन्नचित्त होता है वह जिस प्रीतिरूप सुखको प्राप्त करता है वह सुख चक्रवर्तीको भी प्राप्त नहीं होता ॥ ११७६॥ Jain Education International चक्रवर्तीका सुख कम क्यों है इसका कारण कहते हैं गा० - चक्रवर्तीके सुखका फल राग है क्योंकि विषय सुखका सेवन पुरुषको विषयमें अनुरक्त करता है । तथा वह तृष्णाको बढ़ाता है । अत्यन्त गृद्धिको लम्पटताको उत्पन्न करता है । उसमें तृप्ति नहीं है । अतः चक्रवर्तीका सुख अपरिग्रहीको जो परिग्रहका त्याग करने पर सुख होता है, उसके अनन्तवें भाग भी नहीं है ॥ ११७७॥ हंसा आदिका महाव्रत नाम सार्थक है, यह कहते हैं ---- गा०-यतः ये असंयमके निमित्तसे होने वाले नवीन कर्म समूहका निवारण रूप महान् १. स्यासंख्यभा-अ० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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